अव्यक्ताद्व्यक्तय: सर्वा: प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसञ्ज्ञके॥ १८॥
ब्रह्माके दिनके आरम्भकालमें अव्यक्त-(ब्रह्मा के सूक्ष्मशरीर-) से सम्पूर्ण शरीर पैदा होते हैं (और) ब्रह्माकी रातके आरम्भकालमें उस अव्यक्त नामवाले-एव(ब्रह्माके सूक्ष्मशरीर-) में ही (सम्पूर्ण शरीर)लीन हो जाते हैं।
All embodied beings emanate from the Unmanifest (i.e., Brahma's subtle body) at the coming of the cosmic day; at the cosmic nightfall they merge into the same subtle body of Brahma, known as the Unmanifest. (8:18)
आब्रह्मभुवनाल्लोका: पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥ १६॥
हे अर्जुन! ब्रह्मलोकतक सभी लोक पुनरावर्तीवाले हैं अर्थात् वहाँ जानेपर पुन: लौटकर संसारमें आना पड़ता है; परन्तु हे कौन्तेय! मुझे प्राप्त होनेपर पुनर्जन्म नहीं होता।
Arjuna, all the worlds from Brahmaloka (the heavenly realm of the Creator, Brahma) downwards are liable to birth and rebirth. But, O son of Kunti, on attaining Me there is no rebirth (For, while I am beyond Time, regions like Brahmaloka, being conditioned by time, are transitory). (8:16)
अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:॥ १४॥
हे पृथानन्दन! अनन्य चित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य- निरन्तर स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें लगे हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् उसको सुलभतासे प्राप्त हो जाता हूँ।
Arjuna, whosoever always and constantly thinks of Me with undivided mind, to that Yogi ever
absorbed in Me I am easily attainable. (8:14)
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागा:।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये॥ ११॥
वेदवेत्तालोग जिसको अक्षर कहते हैं, वीतराग यति जिसको प्राप्त करते हैं (और) (साधक) जिसकी (प्राप्तिकी) इच्छा करते हुए ब्रह्मचर्यका पालन करते हैं, वह पद (मैं) तेरे लिये संक्षेपसे कहूँगा।
I shall tell you briefly about that Supreme goal (viz., God, who is an embodiment of Truth, Knowledge and Bliss), which the knowers of theVeda term as the Indestructible, which striving
recluses, free from passion, merge into, and desiringwhich the celibates practise Brahmacarya. (8:11)
कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्य: ।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमस: परस्तात्॥ ९॥
जो सर्वज्ञ, अनादि, सबपर शासन करनेवाला, सूक्ष्मसे अत्यन्त सूक्ष्म, सबका धारण-पोषण करनेवाला, अज्ञानसे अत्यन्त परे, सूर्यकी तरह प्रकाशस्वरूप अर्थात् ज्ञानस्वरूप —ऐसे अचिन्त्य स्वरूपका चिन्तन करता है।
He who contemplates on the all-knowing, ageless Being, the Ruler of all, subtler than the subtle, the universal sustainer, possessing a form beyond human conception, effulgent like the sun and far beyond the darkness of ignorance. (8:9)
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥ ७॥
इसलिये (तू) सब समयमें मेरा स्मरण कर (और) युद्ध भी कर। मुझमें मन और बुद्धि अर्पित करनेवाला (तू) नि:सन्देह मुझे ही प्राप्त होगा।
Therefore, Arjuna, think of Me at all times and fight. With mind and reason thus set on Me, you will doubtless come to Me. (8:7)
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:॥ ५॥
जो मनुष्य अन्तकालमें भी मेरा स्मरण करते हुए शरीर छोडक़र जाता है, वह मेरे स्वरूपको ही प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं है।
He who departs from the body, thinking of Me alone even at the time of death, attains My state;
there is no doubt about it. (8:5)
श्रीभगवानुवाच
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्ग: कर्मसञ्ज्ञित:॥ ३॥
श्रीभगवान् बोले— परम अक्षर ब्रह्म है (और) परा प्रकृति-(जीव-) को अध्यात्म कहते हैं। प्राणियोंकी सत्ता-को प्रकट करनेवाला त्याग कर्म कहा जाता है।
Sri Bhagavan said:The supreme Indestructible is Brahma, one's own Self (the individual soul)
is called Adhyatma; and the discharge of spirits,(Visarga), which brings forth the existence of beings, is called Karma (Action). (8:3)
{8}
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
अथाष्टमोऽध्यायः
अर्जुन उवाच
किं तद् ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥.१॥
अधियज्ञ: कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन।
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभि:॥.२॥
अर्जुन बोले— हे पुरुषोत्तम! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत किसको कहा गया है? और अधिदैव किसको कहा जाता है? यहाँ अधियज्ञ कौन है? और (वह) इस देहमें कैसे है? हे मधुसूदन! वशीभूत अन्त:-करणवाले मनुष्यके द्वारा अन्तकालमें (आप) कैसे जाननेमें आते हैं?
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये।
ते ब्रह्म तद्विदु: कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्॥ २९॥
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदु:।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतस:॥ ३०॥
जरामरण- वृद्धावस्था और मृत्युसे मुक्ति पानेके लिये जो मनुष्य मेरा आश्रय लेकर प्रयत्न करते हैं, वे उस ब्रह्मको, सम्पूर्ण अध्यात्मको और सम्पूर्ण कर्मको जान जाते हैं।
जो मनुष्य अधिभूत तथा अधिदैवके सहित और अधियज्ञके सहित मुझे जानते हैं, वे मुझमें लगे हुए चित्तवाले मनुष्य अन्तकालमें भी मुझे ही जानते हैं अर्थात् प्राप्त होते हैं।
They who, having taken refuge in Me, strive for deliverance from old age and death know Brahma (the Absolute), the whole Adhyatma (the totality of Jivas or embodied souls), and the entire
field of Karma (action) as well as My integral being, comprising Adhibhuta (the field of Matter), Adhidaiva (Brahma) and Adhiyajna (the unmanifest Divinity dwelling in the heart of all beings as their witness). And they who, possessed of a steadfast mind, know thus even at the hour of death, they too know Me alone. (7:29-30)
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप॥ २७॥
कारण कि— हे भरतवंशमें उत्पन्न शत्रुतापन अर्जुन! इच्छा (राग) और द्वेषसे उत्पन्न होनेवाले द्वन्द्व-मोहसे (मोहित) सम्पूर्ण प्राणी संसारमें (अनादिकालसे) मूढ़ताको अर्थात् जन्म-मरणको प्राप्त हो रहे हैं।
O valiant Arjuna, through delusion in the shape of pairs of opposites (such as pleasure and pain etc.,) born of desire and aversion, all living creatures in this world are falling a prey to infatuation. (7:27)
नाहं प्रकाश: सर्वस्य योगमायासमावृत:।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्॥ २५॥
यह जो मूढ़ मनुष्यसमुदाय मुझे अज (और) अविनाशी ठीक तरहसे जानाति नहीं जानता (मानता), उन सबके (सामने) योगमायासे अच्छी तरह ढका हुआ मैं प्रकट नहीं होता।
Veiled by My Yogamaya, divine potency, I am not manifest to all. Hence these ignorant folk fail to recognize Me, the birthless and imperishable Supreme Deity i.e., consider Me as subject to birth and death. (7:25)
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि॥ २३॥
परन्तु उन तुच्छ बुद्धिवाले मनुष्यों को उन देवताओं की आराधना का फल अन्तवाला (नाशवान्) ही मिलता है। देवताओं का पूजन करनेवाले देवताओं को प्राप्त होते हैं (और) मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।
The fruit gained by these people of small understanding, however, is perishable. The worshippers of gods attain the gods; whereas My devotees, howsoever they worship Me, eventually come to Me and Me alone. (7:23)
यो यो यां यां तनुं भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्॥ २१॥
जो-जो भक्त जिस-जिस देवताका श्रद्धापूर्वक पूजन करना चाहता है, उस-उस देवतामें ही मैं उसी श्रद्धाको दृढ़ कर देता हूँ।
Whatever celestial form a devotee (craving forsome worldly object) chooses to worship with
reverence, I stabilize the faith of that particular devotee in that very form. (7:21)
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥ १९॥
बहुत जन्मोंके अन्तिम जन्ममें अर्थात् मनुष्यजन्ममें सब कुछ परमात्मा ही हैं— इस प्रकार (जो) ज्ञानवान् मेरे शरण होता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।
In the very last of all births the enlightenedperson worships Me by realizing that all this isGod. Such a great soul is very rare indeed. (7:19)
सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदु:।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जना:॥ १७॥
जो मनुष्य ब्रह्माके एक हजार चतुर्युगीवाले एक दिनको (और) एक हजार चतुर्युगीवाली एक रात्रिको जानते हैं, वे मनुष्य ब्रह्माके दिन और रातको जानने-वाले हैं।
Those Yogis who know from realization Brahma's day as covering a thousand Mahayugas, and so his night as extending to another thousand Mahayugas know the reality about Time. (8:17)
मामुपेत्य पुनर्जन्म दु:खालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मान: संसिद्धिं परमां गता:॥ १५॥
महात्मालोग मुझे प्राप्त करके दु:खालय अर्थात् दु:खोंके घर (और) अशाश्वत अर्थात् निरन्तर बदलने-वाले पुनर्जन्मको प्राप्त नहीं होते; (क्योंकि वे) परम सिद्धिको प्राप्त हो गये हैं अर्थात् उनको परम प्रेमकी प्राप्ति हो गयी है।
Great souls, who have attained the highest perfection, having come to Me, are no more subject to rebirth, which is the abode of sorrow, and transient by nature. (8:15)
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूध्न्र्याधायात्मन: प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥ १२॥
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
य: प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥ १३॥
(इन्द्रियोंके) सम्पूर्ण द्वारोंको रोककर मनका हृदयमें निरोध करके और अपने प्राणोंको मस्तकमें स्थापित करके योगधारणामें सम्यक् प्रकारसे स्थित हुआ जो साधक ‘ॐ’ इस एक अक्षर ब्रह्मका (मानसिक) उच्चारण (और) मेरा स्मरण करता हुआ शरीरको छोडक़र जाता है, वह परम गतिको प्राप्त होता है।
Having controlled all the senses, and firmly holding the mind in the heart, and then drawing the life-breath to the head, and thus remaining steadfast in Yogic concentration on God, he who
leaves the body and departs uttering the one Indestructible Brahma, OM, and dwelling on Me in My absolute aspect, reaches the supreme goal. (8:12-13)
प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥ १०॥
वह भक्तियुक्त मनुष्य अन्त समयमें अचल मनसे और योगबलके द्वारा भृकुटीके मध्यमें प्राणोंको अच्छी तरहसे प्रविष्ट करके(शरीर छोडऩेपर) उस परम दिव्य पुरुषको ही प्राप्त होता है।
Having by the power of Yoga firmly held the life-breath in the space between the two eyebrows
even at the time of death, and then contemplating on God with a steadfast mind, full of devotion, he reaches verily that supreme divine Purusa (God). (8:10)
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्॥ ८॥
हे पृथानन्दन! अभ्यासयोगसे युक्त (और) अन्यका चिन्तन न करनेवाले चित्तसे परम दिव्य पुरुषका चिन्तन करता हुआ (शरीर छोडऩे-वाला मनुष्य) (उसीको) प्राप्त हो जाता है।
Arjuna, he who with his mind disciplined through Yoga in the form of practice of meditation
and thinking of nothing else, is constantly engaged in contemplation of God attains the supremely effulgent Divine Purusa (God). (8:8)
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावित:॥ ६॥
हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! (मनुष्य) अन्तकालमें जिस-जिस भी भावका स्मरण करते हुए शरीर छोड़ता है वह उस (अन्तकालके) भावसे सदा भावित होता हुआ उस-उसको ही प्राप्त होता है अर्थात् उस-उस योनिमें ही चला जाता है।
Arjuna, thinking of whatever entity one leaves the body at the time of death, that and that alone one attains, being ever absorbed in its thought. (8:6)
अधिभूतं क्षरो भाव: पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥ ४॥
हे देहधारियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! क्षर भाव अर्थात् नाशवान् पदार्थ अधिभूत हैं, पुरुष अर्थात् हिरण्यगर्भ ब्रह्मा अधिदैव हैं और इस देहमें (अन्तर्यामीरूपसे) मैं ही अधियज्ञ हूँ।
All perishable objects are Adhibhuta; theshining Purusa (Brahma) is Adhidaiva; and in this
body I Myself, dwelling as the inner witness, amAdhiyajna, O Arjuna! (8:4)
Chapter VIII
Arjuna said : Krsna, what is that Brahma(Absolute), what is Adhyatma (Spirit), and what is Karma (Action)? What is called Adhibhuuta (Matter) and what is termed as Adhidaiva (Divine Intelligence)? (1)
Krsna, who is Adhiyajna here and how doeshe dwell in the body? And how are You to berealized at the time of death by those of steadfastmind? (2)
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम सप्तमोऽध्यायः ।।७।।
Thus, in the Upanisad sung by the Lord, the Science of Brahma, the scripture of Yoga, the dialogue between Sri Krsna and Arjuna, ends theseventh chapter entitled "The Yoga of Jnana(Knowledge of Nirguna Brahma) and Vijnana(Knowledge of Manifest Divinity)"
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येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रता:॥ २८॥
परन्तु जिन पुण्यकर्मा मनुष्योंके पाप नष्ट हो गये हैं, वे द्वन्द्वमोहसे रहित हुए मनुष्य दृढ़व्रती होकर मेरा भजन करते हैं।
But those men of virtuous deeds, whose sins have come to an end, being freed from delusion in the shape of pairs of opposites born of attraction and repulsion, worship Me with a firm resolve in
every way. (7:28)
वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन॥ २६॥
हे अर्जुन! जो प्राणी भूतकालमें हो चुके हैं, तथा जो वर्तमानमें हैं और जो भविष्यमें होंगे,(उन सब प्राणियोंको तो) मैं जानता हूँ; परन्तु मुझे (भक्तके सिवाय) कोई भी नहीं जानता।
Arjuna, I know all beings, past as well as present,nay, even those that are yet to come; but none, devoid of faith and devotion, knows Me. (7:26)
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धय:।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्॥ २४॥
बुद्धिहीन मनुष्य मेरे परम, अविनाशी (और) सर्वश्रेष्ठ भावको न जानते हुए अव्यक्त (मन-इन्द्रियोंसे पर) मुझ-(सच्चिदानन्दघन परमात्मा-)को मनुष्यकी तरह शरीर धारण करनेवाला मानते हैं।
Not knowing My supreme nature, unsurpassable and undecaying, the ignorant persons regard Me,
who am the Supreme Spirit, beyond the reach of mind and senses, and the embodiment of Truth,Knowledge and Bliss, to have assumed a finite form through birth as an ordinary human being.(7:24)
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते।
लभते च तत: कामान्मयैव विहितान्हि तान्॥ २२॥
उस (मेरे द्वारा दृढ़ की हुई) श्रद्धासे युक्त होकर वह मनुष्य उस देवताकी (सकाम-भावपूर्वक) उपासना करता है और उसकी वह कामना पूरी भी होती है; परन्तु वह कामना-पूर्ति मेरे द्वारा ही विहित की हुई होती है।
Endowed with such faith he worships that particular deity and obtains through that deity without doubt his desired enjoyments as ordained by Me. (7:22)
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञाना: प्रपद्यन्तेऽन्यदेवता:।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियता: स्वया॥ २०॥
परन्तु—
उन-उन कामनाओंसे जिनका ज्ञान हरा गया है, (ऐसे मनुष्य) अपनी-अपनी प्रकृति अर्थात् स्वभावसे नियन्त्रित होकर उस-उस अर्थात् देवताओंके उन-उन नियमोंको धारण करते हुए अन्य देवताओंके शरण हो जाते हैं।
Those whose wisdom has been carried awayby various desires, being prompted by their own nature, worship other deities, adopting normsrelating to each. (7:20)
उदारा: सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।
आस्थित: स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्॥ १८॥
पहले कहे हुए सब-के-सब (चारों) ही भक्त बड़े उदार (श्रेष्ठ भाववाले) हैं। परन्तु ज्ञानी (प्रेमी) तो मेरा स्वरूप ही है— (ऐसा मेरा) मत है। कारण कि वह मुझसे अभिन्न है(और) जिससे श्रेष्ठ दूसरी कोई गति नहीं है,(ऐसे) मुझमें ही दृढ़ स्थित है।
Indeed, all these are noble, but the man of wisdom is My very self; such is My view. For such a devotee, who has his mind and intellect merged in Me, is firmly established in Me alone as the highest goal. (7:18)