अश्रद्दधाना: पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवत्र्मनि॥ ३॥
हे परन्तप! इस धर्मकी महिमापर श्रद्धा न रखनेवाले मनुष्य मुझे प्राप्त न होकर मृत्युरूप वत्र्मनि संसारके मार्गमें लौटते रहते हैं अर्थात् बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं।
Arjuna, people having no faith in this Dharma, failing to reach Me, continue to revolve in the path of the world of birth and death. (9:3)
{9}
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
अथ नवमोऽध्यायः
श्रीभगवानुवाच
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥ १॥
श्रीभगवान् बोले— यह अत्यन्त गोपनीय विज्ञानसहित ज्ञान दोषदृष्टिरहित तेरे लिये तो (मैं फिर) अच्छी तरहसे कहूँगा, जिसको जानकर (तू) अशुभसे अर्थात् जन्म-मरणरूप संसारसे मुक्त हो जायगा।
Sri Bhagavan said : To you, who are devoid of the carping spirit, I shall now unfold the most secret knowledge of Nirguna Brahma along with the knowledge of manifest Divinity, knowing which you shall be free from the evil of worldly existence. (9:1)
वेदेषु यज्ञेषु तप:सु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्॥ २८॥
योगी (भक्त) इसको (इस अध्यायमें वर्णित विषयको) जानकर वेदोंमें, यज्ञोंमें, तपोंमें तथा दानमें जो-जो पुण्यफल कहे गये हैं, उन सभी पुण्यफलोंका अतिक्रमण कर जाता है और आदिस्थान परमात्माको प्राप्त हो जाता है।
The Yogi, realizing this profound truth,
doubtless transcends all the rewards enumerated for the study of the Vedas as well as for the performance of sacrifices, austerities and charities, and attains the supreme and primal state. (8:28)
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगत: शाश्वते मते।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुन:॥ २६॥
क्योंकि शुक्ल और कृष्ण— ये दोनों गतियाँ अनादिकालसे जगत्-(प्राणिमात्र-) के साथ (सम्बन्ध रखनेवाली) मानी गयी हैं। (इनमेंसे) एक गतिमें जानेवालेको लौटना नहीं पड़ता (और) दूसरी गतिमें जानेवालेको पुन: लौटना पड़ता है।
For these two paths of the world, the bright and the dark, are considered to be eternal. Proceeding by one of them, one reaches the supreme state from which there is no return; and proceeding by the other, one returns to the mortal world, i.e., becomes subject to birth and death once more. (8:26)
अग्निज्र्योतिरह: शुक्ल: षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जना:॥ २४॥
जिस मार्गमें— प्रकाशस्वरूप अग्निका अधिपति देवता, दिनका अधिपति देवता, शुक्लपक्षका अधिपति देवता, (और) छ: महीनोंवाले उत्तरायणका अधिपति देवता है, उस मार्गसे (शरीर छोडक़र) गये हुए ब्रह्मवेत्ता पुरुष (पहले ब्रह्मलोकको प्राप्त होकर पीछे ब्रह्माके साथ) ब्रह्मको प्राप्त हो जाते हैं।
(Of the two paths) the one is that in which are stationed the all-effulgent fire-god and the deities presiding over daylight, the bright fortnight, and the six months of the northward course of the sun respectively; proceeding along it after death Yogis, who have known Brahma, being successively led by the above gods, finally reach Brahma. (8:24)
पुरुष: स पर: पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्त:स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्॥ २२॥
हे पृथानन्दन अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जिसके अन्तर्गत हैं (और) जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, वह परम पुरुष परमात्मा तो अनन्य भक्तिसे प्राप्त होनेयोग्य है।
Arjuna, that eternal unmanifest supreme Purusa in whom all beings reside and by whom all this is pervaded, is attainable only through exclusive Devotion. (8:22)
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातन:।
य: स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति॥ २०॥
परन्तु उस अव्यक्त-(ब्रह्माके सूक्ष्मशरीर-) से अन्य (विलक्षण) अनादि अत्यन्त श्रेष्ठ भावरूप जो अव्यक्त (ईश्वर) है, वह सम्पूर्ण प्राणियोंके नष्ट होनेपर भी नष्ट नहीं होता।
Far beyond even this unmanifest, there is yet another unmanifest Existence, that Supreme Divine Person, who does not perish even though all beings perish. (8:20)
अव्यक्ताद्व्यक्तय: सर्वा: प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसञ्ज्ञके॥ १८॥
ब्रह्माके दिनके आरम्भकालमें अव्यक्त-(ब्रह्मा के सूक्ष्मशरीर-) से सम्पूर्ण शरीर पैदा होते हैं (और) ब्रह्माकी रातके आरम्भकालमें उस अव्यक्त नामवाले-एव(ब्रह्माके सूक्ष्मशरीर-) में ही (सम्पूर्ण शरीर)लीन हो जाते हैं।
All embodied beings emanate from the Unmanifest (i.e., Brahma's subtle body) at the coming of the cosmic day; at the cosmic nightfall they merge into the same subtle body of Brahma, known as the Unmanifest. (8:18)
आब्रह्मभुवनाल्लोका: पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥ १६॥
हे अर्जुन! ब्रह्मलोकतक सभी लोक पुनरावर्तीवाले हैं अर्थात् वहाँ जानेपर पुन: लौटकर संसारमें आना पड़ता है; परन्तु हे कौन्तेय! मुझे प्राप्त होनेपर पुनर्जन्म नहीं होता।
Arjuna, all the worlds from Brahmaloka (the heavenly realm of the Creator, Brahma) downwards are liable to birth and rebirth. But, O son of Kunti, on attaining Me there is no rebirth (For, while I am beyond Time, regions like Brahmaloka, being conditioned by time, are transitory). (8:16)
अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:॥ १४॥
हे पृथानन्दन! अनन्य चित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य- निरन्तर स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें लगे हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् उसको सुलभतासे प्राप्त हो जाता हूँ।
Arjuna, whosoever always and constantly thinks of Me with undivided mind, to that Yogi ever
absorbed in Me I am easily attainable. (8:14)
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागा:।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये॥ ११॥
वेदवेत्तालोग जिसको अक्षर कहते हैं, वीतराग यति जिसको प्राप्त करते हैं (और) (साधक) जिसकी (प्राप्तिकी) इच्छा करते हुए ब्रह्मचर्यका पालन करते हैं, वह पद (मैं) तेरे लिये संक्षेपसे कहूँगा।
I shall tell you briefly about that Supreme goal (viz., God, who is an embodiment of Truth, Knowledge and Bliss), which the knowers of theVeda term as the Indestructible, which striving
recluses, free from passion, merge into, and desiringwhich the celibates practise Brahmacarya. (8:11)
कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्य: ।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमस: परस्तात्॥ ९॥
जो सर्वज्ञ, अनादि, सबपर शासन करनेवाला, सूक्ष्मसे अत्यन्त सूक्ष्म, सबका धारण-पोषण करनेवाला, अज्ञानसे अत्यन्त परे, सूर्यकी तरह प्रकाशस्वरूप अर्थात् ज्ञानस्वरूप —ऐसे अचिन्त्य स्वरूपका चिन्तन करता है।
He who contemplates on the all-knowing, ageless Being, the Ruler of all, subtler than the subtle, the universal sustainer, possessing a form beyond human conception, effulgent like the sun and far beyond the darkness of ignorance. (8:9)
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥ ७॥
इसलिये (तू) सब समयमें मेरा स्मरण कर (और) युद्ध भी कर। मुझमें मन और बुद्धि अर्पित करनेवाला (तू) नि:सन्देह मुझे ही प्राप्त होगा।
Therefore, Arjuna, think of Me at all times and fight. With mind and reason thus set on Me, you will doubtless come to Me. (8:7)
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:॥ ५॥
जो मनुष्य अन्तकालमें भी मेरा स्मरण करते हुए शरीर छोडक़र जाता है, वह मेरे स्वरूपको ही प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं है।
He who departs from the body, thinking of Me alone even at the time of death, attains My state;
there is no doubt about it. (8:5)
श्रीभगवानुवाच
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्ग: कर्मसञ्ज्ञित:॥ ३॥
श्रीभगवान् बोले— परम अक्षर ब्रह्म है (और) परा प्रकृति-(जीव-) को अध्यात्म कहते हैं। प्राणियोंकी सत्ता-को प्रकट करनेवाला त्याग कर्म कहा जाता है।
Sri Bhagavan said:The supreme Indestructible is Brahma, one's own Self (the individual soul)
is called Adhyatma; and the discharge of spirits,(Visarga), which brings forth the existence of beings, is called Karma (Action). (8:3)
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धम्र्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्॥ २॥
यह (विज्ञानसहित ज्ञान अर्थात् समग्ररूप) सम्पूर्ण विद्याओंका राजा (और) सम्पूर्ण गोपनीयोंका राजा है। यह अति पवित्र (तथा) अतिश्रेष्ठ है (और) इसका फल भी प्रत्यक्ष है। यह धर्ममय है, अविनाशी है (और) करनेमें बहुत सुगम है अर्थात् इसको प्राप्त करना बहुत सुगम है।
This knowledge (of both the Nirguna and Saguna aspects of Divinity) is a sovereign science, a sovereign secret, supremely holy, most excellent, directly enjoyable, attended with virtue, very easy to practise and imperishable. (9:2)
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अक्षरभ्रह्मयोगो नामाष्टमोऽध्यायः ।।८।।
Thus, in the Upanishad sung by the Lord, the Science of Brahma, the scripture of Yoga, the dialogue between Sri Krishna and Arjuna, ends the eighth chapter entitled 'The Yoga of the Indestructible Brahma.'
||8||
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नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ।।२७।।
हे पृथानन्दन! इन दोनों मार्गोंको जाननेवाला कोई भी योगी मोहित नहीं होता। अत: हे अर्जुन! (तू) सब समयमें योगयुक्त (समतामें स्थित) हो जा।
Knowing thus the secret of these two paths, O son of Kunti, no Yogi gets deluded. Therefore, Arjuna, at all times be steadfast in Yoga in the form of equanimity (i.e., strive constantly for My realization). (8:27)
धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण: षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते॥ २५॥
जिस मार्गमें— धूमका अधिपति देवता, रात्रिका अधिपति देवता, कृष्णपक्षका अधिपति देवता और छ: महीनोंवाले दक्षिणायनका अधिपति देवता है, (शरीर छोडक़र) उस मार्गसे गया हुआ योगी (सकाम मनुष्य) चन्द्रमाकी ज्योतिको प्राप्त होकर लौट आता है अर्थात् जन्म-मरणको प्राप्त होता है।
The other path is that wherein are stationed the gods presiding over smoke, night, the dark fortnight, and the six months of the southward course of the sun; the Yogi (devoted to action with an interested motive) taking to this path after death is led by the above gods, one after another, and attaining the lustre of the moon (and enjoying the fruit of his meritorious deeds in heaven) returns to this mortal world. (8:25)
यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिन:।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ॥ २३॥
परन्तु हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! जिस काल अर्थात् मार्गमें शरीर छोडक़र गये हुए योगी अनावृत्तिको प्राप्त होते हैं अर्थात् पीछे लौटकर नहीं आते और (जिस मार्गमें गये हुए) आवृत्तिको प्राप्त होते हैं अर्थात् पीछे लौटकर आते हैं, उस कालको अर्थात् दोनों मार्गोंको मैं कहूँगा।
Arjuna, I shall now tell you the time (path)departing when Yogis do not return, and also the time (path) departing when they do return. (8:23)
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहु: परमां गतिम्।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥ २१॥
उसीको अव्यक्त (और) अक्षर— ऐसा कहा गया है (तथा उसीको) परम गति कहा गया है (और) जिसको प्राप्त होनेपर (जीव) फिर लौटकर (संसारमें) नहीं आते, वह मेरा परम धाम है।
The same unmanifest which has been spoken of as the Indestructible is also called the supreme Goal; that again is My supreme Abode, attaining which they return not to this mortal world. (8:21)
भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
रात्र्यागमेऽवश: पार्थ प्रभवत्यहरागमे॥ १९॥
हे पार्थ! वही यह प्राणिसमुदाय उत्पन्न हो-होकर प्रकृतिके परवश हुआ ब्रह्माके दिनके समय उत्पन्न होता है (और) ब्रह्माकी रात्रिके समय लीन होता है।
Arjuna, this multitude of beings, being born again and again, is dissolved under compulsion of its nature at the coming of the cosmic night, and rises again at the commencement of the cosmic day. (8:19)
सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदु:।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जना:॥ १७॥
जो मनुष्य ब्रह्माके एक हजार चतुर्युगीवाले एक दिनको (और) एक हजार चतुर्युगीवाली एक रात्रिको जानते हैं, वे मनुष्य ब्रह्माके दिन और रातको जानने-वाले हैं।
Those Yogis who know from realization Brahma's day as covering a thousand Mahayugas, and so his night as extending to another thousand Mahayugas know the reality about Time. (8:17)
मामुपेत्य पुनर्जन्म दु:खालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मान: संसिद्धिं परमां गता:॥ १५॥
महात्मालोग मुझे प्राप्त करके दु:खालय अर्थात् दु:खोंके घर (और) अशाश्वत अर्थात् निरन्तर बदलने-वाले पुनर्जन्मको प्राप्त नहीं होते; (क्योंकि वे) परम सिद्धिको प्राप्त हो गये हैं अर्थात् उनको परम प्रेमकी प्राप्ति हो गयी है।
Great souls, who have attained the highest perfection, having come to Me, are no more subject to rebirth, which is the abode of sorrow, and transient by nature. (8:15)
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूध्न्र्याधायात्मन: प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥ १२॥
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
य: प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥ १३॥
(इन्द्रियोंके) सम्पूर्ण द्वारोंको रोककर मनका हृदयमें निरोध करके और अपने प्राणोंको मस्तकमें स्थापित करके योगधारणामें सम्यक् प्रकारसे स्थित हुआ जो साधक ‘ॐ’ इस एक अक्षर ब्रह्मका (मानसिक) उच्चारण (और) मेरा स्मरण करता हुआ शरीरको छोडक़र जाता है, वह परम गतिको प्राप्त होता है।
Having controlled all the senses, and firmly holding the mind in the heart, and then drawing the life-breath to the head, and thus remaining steadfast in Yogic concentration on God, he who
leaves the body and departs uttering the one Indestructible Brahma, OM, and dwelling on Me in My absolute aspect, reaches the supreme goal. (8:12-13)
प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥ १०॥
वह भक्तियुक्त मनुष्य अन्त समयमें अचल मनसे और योगबलके द्वारा भृकुटीके मध्यमें प्राणोंको अच्छी तरहसे प्रविष्ट करके(शरीर छोडऩेपर) उस परम दिव्य पुरुषको ही प्राप्त होता है।
Having by the power of Yoga firmly held the life-breath in the space between the two eyebrows
even at the time of death, and then contemplating on God with a steadfast mind, full of devotion, he reaches verily that supreme divine Purusa (God). (8:10)
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्॥ ८॥
हे पृथानन्दन! अभ्यासयोगसे युक्त (और) अन्यका चिन्तन न करनेवाले चित्तसे परम दिव्य पुरुषका चिन्तन करता हुआ (शरीर छोडऩे-वाला मनुष्य) (उसीको) प्राप्त हो जाता है।
Arjuna, he who with his mind disciplined through Yoga in the form of practice of meditation
and thinking of nothing else, is constantly engaged in contemplation of God attains the supremely effulgent Divine Purusa (God). (8:8)
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावित:॥ ६॥
हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! (मनुष्य) अन्तकालमें जिस-जिस भी भावका स्मरण करते हुए शरीर छोड़ता है वह उस (अन्तकालके) भावसे सदा भावित होता हुआ उस-उसको ही प्राप्त होता है अर्थात् उस-उस योनिमें ही चला जाता है।
Arjuna, thinking of whatever entity one leaves the body at the time of death, that and that alone one attains, being ever absorbed in its thought. (8:6)
अधिभूतं क्षरो भाव: पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥ ४॥
हे देहधारियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! क्षर भाव अर्थात् नाशवान् पदार्थ अधिभूत हैं, पुरुष अर्थात् हिरण्यगर्भ ब्रह्मा अधिदैव हैं और इस देहमें (अन्तर्यामीरूपसे) मैं ही अधियज्ञ हूँ।
All perishable objects are Adhibhuta; theshining Purusa (Brahma) is Adhidaiva; and in this
body I Myself, dwelling as the inner witness, amAdhiyajna, O Arjuna! (8:4)
Chapter VIII
Arjuna said : Krsna, what is that Brahma(Absolute), what is Adhyatma (Spirit), and what is Karma (Action)? What is called Adhibhuuta (Matter) and what is termed as Adhidaiva (Divine Intelligence)? (1)
Krsna, who is Adhiyajna here and how doeshe dwell in the body? And how are You to berealized at the time of death by those of steadfastmind? (2)