Motivation success point
आप कितनी ही कोशिश कर लें,
लोगों की धारणा आपके प्रति
नहीं बदलेगी,
इसलिए हमेशा खुशी और सुकून से
अपनी जिंदगी जिये और खुश रहें ।।
🌺🌸 सुप्रभात 🌸🌺
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हा नाथ....😢😢
दास हूँ तिहारों नाथ हे मेरे दीनानाथ श्याम ,
ऐसे न अनाथ को , चरणन सों दूर करिए ।
मन भरे हैं नित पाप ,न करूं तेरा नाम जाप
प्रभु दयालु हैं आप ,कृपा करि पाप हरिए ।
अधम पामर उद्धारे , नीच पापी को तारे ,
मोहि को देखी प्रभु अब ऐसे न मुकरिए ।
कृपा करि उद्धारो , शरण दै जीबन सँवारो ,
मेरे मन में मनमोहन , माधुर्य रस भरिए ।
जय जय श्रीराधे🙏🏻🙏🏻🙏🏻
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https://youtu.be/6wUQh_8Agk8
आप सुन सकते है कुसुम सरोवर में छुपा इतहास और उसकी पांच कहानियाँ
सुनिए सुनाइए लोगो को व्रज धाम घर बैठे अनुभव करवाइये
Please comment your realisations
*राम लीला में हनुमान जी बहुत महान भक्त हैं।*
*परम पूज्य श्रील नव योगेन्द्र स्वामी जी महाराज* के प्रवचन से मुख्य अंश 🙏
दिनांक:- *मार्च 24, 2023, वृंदावन।*
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🔸जीवन का उद्देश्य अपनी शुद्धि करना है और अपने घर को वापिस जाना है। यह संसार हमारा घर नहीं है, हमारा घर वैकुंठ लोक है। भगवान के साथ रहकर ही हम सुखी हो सकते हैं।
🔸हम सबको अपना भविष्य उज्जवल बनाना है और भविष्य की उज्जवलता श्रीकृष्ण की शरण में है।
🔸हमें अपने जीवन का केंद्र भगवान को बनाना चाहिए। भक्ति से ही भगवान मिलेंगे और हमारा जीवन सफल होगा।
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*राधे - राधे ॥ आज का भगवद् चिन्तन ॥*
14 - 03 - 2023
*" वेदमार्ग "*
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अपने जीवन को वेदमय बनाकर जियो, भेदमय बनाकर नहीं। वेद कहते हैं कि दूसरों के साथ कभी भी वह व्यवहार मत करो जो तुम्हे स्वयं पसंद न हो। सबसे प्रेम करो और सबका सम्मान करना सीखो। दूसरों के साथ अनुचित व्यवहार करने से पूर्व विचार करो कि हमारा व्यवहार किसी को आहत करने वाला न हो।
उस ईश्वर को आप अपनी आत्मा समझते हो तो वह ईश्वर सभी में निवास करता है। अपने हित के लिए दूसरों को प्रताड़ित करना यही तो भेद दृष्टि है एवं *हरि व्यापक सर्वत्र समाना* की भावना ही वेद दृष्टि है।
प्रार्थना करते समय प्रभु मेरे पास हैं और पाप करते समय प्रभु बहुत दूर हैं देख ही कौन रहा है की भावना ही भेद दृष्टि है। विभीषण का जीवन वेदमार्गी और रावण का जीवन भेदमार्गी है। वेदमार्ग पर चलने वाला प्रभु का प्रिय तो भेदमार्ग पर चलने वाला उस प्रभु का अप्रिय भी बन जाता है।
*संजीव कृष्ण ठाकुर जी*
हरिद्वार, उत्तराखण्ड
अध्याय 18 : उपसंहार - संन्यास की सिद्धि
🥁🥁TODAY’S BHAGAVAD GITA’S SLOKA🥁🥁
DATE : 04-03-2023
श्लोक 18.15
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः ।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चते तस्य हेतवः ॥
शरीर - शरीर से; वाक् - वाणी से; मनोभिः - तथा मन से; यत् - जो; कर्म - कर्म; प्रारभते - प्रारम्भ करता है; नरः - व्यक्ति; न्याय्यम् - उचित, न्यायपूर्ण; वा - अथवा; विपरितम् - (न्याय) विरुद्ध; वा - अथवा; पञ्च - पाँच; एते - ये सब; तस्य - उसके; हेतवः - कारण ।
मनुष्य अपने शरीर, मन या वाणी से जो भी उचित या अनुचित कर्म करता है, वह इन पाँच कारणों के फल स्वरूप होता है ।
तात्पर्य : इस श्लोक में न्याय्य (उचित) तथा विपरीत (अनुचित) शब्द अत्यन्त महत्त्व पूर्ण हैं । सही कार्य शास्त्रों में निर्दिष्ट निर्देशों के अनुसार किया जाता है और अनुचित कार्य में शास्त्रीय आदेशों की अवहेलना की जाती है । किन्तु जो कर्म किया जाता है, उसकी पूर्णता के लिए पाँच कारणों की आवशयकता पड़ती है ।
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अध्याय 18 : उपसंहार - संन्यास की सिद्धि
🥁🥁TODAY’S BHAGAVAD GITA’S SLOKA🥁🥁
DATE : 03-03-2023
श्लोक 18.14
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् |
विविधाश्र्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् १४
.
अधिष्ठानम् - स्थान; तथा - और; कर्ता - करने वाला; करणम् - उपकरण यन्त्र (इन्द्रियाँ); च - तथा; पृथक्-विधम् - विभिन्न प्रकार के; विविधाः - नाना प्रकार के; च - तथा; पृथक् - पृथक पृथक; चेष्टाः - प्रयास; दैवम् - परमात्मा; च - भी; एव - निश्चय ही; अत्र - यहाँ; पञ्चमम् - पाँचवा ।
भावार्थ : कर्म का स्थान (शरीर), कर्ता, विभिन्न इन्द्रियाँ, अनेक प्रकार की चेष्टाएँ तथा परमात्मा - ये पाँच कर्म के कारण हैं ।
तात्पर्य : अधिष्ठानम् शब्द शरीर के लिए आया है । शरीर के भीतर आत्मा कर्म करता है, जिससे कर्म फल होता है । अतएव वह कर्ता कहलाता है । आत्मा ही ज्ञाता तथा कर्ता है, इसका उल्लेख श्रुति में है । एष हि द्रष्टा स्रष्टा (प्रश्न उपनिषद् ४.९) । वेदान्त सूत्र में भी ज्ञोऽतएव (२.३.१८) तथा कर्ता शास्त्रार्थवत्त्वात् (२.३.३३) श्लोकों से इसकी पुष्टि होती है । कर्म के उपकरण इन्द्रियाँ है और आत्मा इन्हीं इन्द्रियों के द्वारा विभिन्न कर्म करता है । प्रत्येक कर्म के लिए पृथक् चेष्ठा होती है । लेकिन सारे कार्यकलाप परमात्मा की इच्छा पर निर्भर करते हैं, जो प्रत्येक हृदय में मित्र रूप में आसीन है । परमेश्र्वर परम कारण है । अतएव जो इन परिस्थितियों में अन्तर्यामी परमात्मा के निर्देश के अन्तर्गत कृष्णभावनामय होकर कर्म करता है, वह किसी कर्म से बँधता नहीं । जो पूर्ण कृष्णभावनामय हैं, वे अन्ततः अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी नहीं होते । सब कुछ परम इच्छा, परमात्मा, भगवान् पर निर्भर है ।
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अध्याय 18 : उपसंहार - संन्यास की सिद्धि
🥁🥁TODAY’S BHAGAVAD GITA’S SLOKA🥁🥁
DATE : 27-02-2023
श्लोक 18.12
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम् |
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित् १२
अनिष्टम् - नरक ले जाने वाले; इष्टम् - स्वर्ग ले जाने वाले; मिश्रम् - मिश्रित; च -तथा; त्रि-विधम् - तीन प्रकार; कर्मणः - कर्म का; फलम् - फल; भवति - होता है; अत्यागिनाम् - त्याग न करने वालों को; प्रेत्य - मरने के बाद; न - नहीं; तु - लेकिन; संन्यासिनाम् - संन्यासी के लिए; क्वचित् - किसी समय, कभी ।
जो त्यागी नहीं है, उसके लिए इच्छित(इष्ट), अनिच्छित (अनिष्ट) तथा मिश्रित - ये तीन प्रकार के कर्मफल मृत्यु के बाद मिलते हैं । लेकिन जो संन्यासी है, उन्हें ऐसे फल का सुख-दुख नहीं भोगना पड़ता ।
तात्पर्य : जो कृष्णभावनामय व्यक्ति कृष्ण के साथ अपने सम्बन्ध को जानते हुए कर्म करता है, वह सदैव मुक्त रहता है । अतएव उसे मृत्यु के पश्चात् अपने कर्म फलों का सुख-दुख नहीं भोगना पड़ता ।
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How much you try,
People’s Perception
No change,
So always from joy and sukuan
Stay happy and happy. .
💜🇺🇸
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राति स्वप्न अइयो मोरे , मन मोहन गोपाल ।
माधुर्य मुख दर्शाय के , करियो मोहे निहाल ।।
रात्री बन्दन जी🙏🏻😍❤️
Hanuman ji is very great devotees in Ram Lila.
The main part of the sermons of Shril Nava Yogendra Swami Ji Maharaj
Date:-March 24, 2023, Vrindavan.
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The aim of life is to make your purification and return your home. This world is not our home, our home is Vaikunth Lok. We can be happy only by living with God.
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We must make the center of our life to God. Only with devotion will God meet and our life will be successful.
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जय जय श्रीराधे💐💐
भोरहि होत कान सुने जब , कृष्ण कृष्ण मधु बैन ।
माधुर्य मुख दरश किए ते , सुफल होवें नित नैंन ।।
प्रातः बन्दन🙏🏻🙏🏻
अध्याय 18 : उपसंहार - संन्यास की सिद्धि
🥁🥁TODAY’S BHAGAVAD GITA’S SLOKA🥁🥁
DATE : 24-02-2023
श्लोक 18.11
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः |
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ११
न - कभी नहीं; हि - निश्चय ही; देह-भृता - देहधारी द्वारा; शक्यम् - सम्भव है; त्यक्तुम् - त्यागने के लिए; कर्माणि - कर्म; अशेषतः - पूर्णतया; यः - जो; तु - लेकिन; कर्म -कर्म के; फल - फल का; त्यागी - त्याग करने वाला;सः - वह; त्यागी - त्यागी; इति - इस प्रकार; अभिधीयते - कहलाता है ।
निस्सन्देह किसी भी देहधारी प्राणी के लिए समस्त कर्मों का परित्याग कर पाना असम्भव है । लेकिन जो कर्म फल का परित्याग करता है, वह वास्तव में त्यागी है ।
तात्पर्य :भगवद्गीता में कहा गया है कि मनुष्य कभी भी कर्म का त्याग नहीं कर सकता। अतएव जो कृष्ण के लिए कर्म करता है और कर्म फलों को भोगता नहीं तथा जो कृष्ण को सब कुछ अर्पित करता है, वही वास्तविक त्यागी है । अन्तर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ के अनेक सदस्य हैं, जो अपने अपने कार्यालयों, कारखानों या अन्य स्थानों में कठिन श्रम करते हैं और वे जो कुछ कमाते हैं, उसे संघ को दान दे देते हैं । ऐसे महात्मा व्यक्ति वास्तव में संन्यासी हैं और वे संन्यास में स्थित होते हैं । यहाँ स्पष्ट रूप से बताया गया है कि कर्म फलों का परित्याग किस प्रकार और किस प्रयोजन के लिए किया जाय ।
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