स्त्रियों को पति की आज्ञा में रहकर ही पूजा करनी चाहिए ऐसा शास्त्रों ने कहा है। तो अगर पति मना करे तो स्त्रियों का क्या कर्तव्य है?
शङ्का# :--स्त्रियों का परम ब्रत (धर्म) पति की सेवा है। अतः जिनसे पति की सेवा में बाधा होती हो उन्ही व्रत तप आदि को ही पतन कारक समझना चाहिए। जिनसे पतिसेवा रूप महाब्रत में बाधा न हो, तथा पति द्वारा अनुमोदित हों, वैसे जप आदि पतन के कारक नहीं होते, वल्कि उत्थान कारक ही होते हैं। जैसे कि ---
#भर्तुश्छन्देन_नारीणां_तपो_वा_व्रततकानि_वा।
#निष्फलं_खलु_यद्भर्तुरच्छन्देन_क्रियेत_हि।।(हरिवंश.पु.विष्णु प..६६--५४)---पति की अनुज्ञा से नारी को तप व्रत आदि करना चाहिए। पति की अनुज्ञा(सम्मति) के विना ही जो विरोध करके करतीं हैं वह सब निष्फल होता है।।" इस प्रकार कहा गया है।
यहाँ यह बात विशेष रूपसे ध्यातव्य है कि--जो स्त्रियां पति की इच्छा के विरुद्ध नहीं हैं, किन्तु उनके #स्पष्ट_मना_करने_पर_भी उन्हें अर्थसंकट में डालकर भी शृङ्गार के चटकीले भड़कीले कीमती वस्त्राभूषण आदि ख़रीदतीं हैं, कामुक tv सिनेमा आदि देखतीं हैं, कामोद्दीपक अण्डा मद्य मांसादि खातीं हैं, परपुरुष से भी अनावश्यक गुह्यभाषण करतीं हैं , हरिदर्शन, हरिकीर्तन, भगवत्प्रसाद नहीं ग्रहण करतीं ,और कारण बतातीं हैं कि #मेरे_पतिदेव_मना_करते_हैं, ऐसी स्त्रियों का पतन ही नहीं #घोर_पतन होता है।
#समाधान
पति की सेवा में बाधा न हो, फिर भी यदि पति नास्तिकता के कारण अश्रद्धा या दुष्टता के कारण पत्नी को जपादि करने को मना करता हो तो उसकी आज्ञा का अतिक्रमण करके गोपियों की तरह व्रत देवाराधन जप आदि करने पर स्त्रियों का पतन कदापि नहीं होता, #उत्थान ही होता है।
जपादि का निषेध उसी स्थिति में है कि पत्नी को पति के अनुकूल होकर ही घरमें भगवान् की सेवा पूजा करनी चाहिए। यदि पति अहङ्कार में मना करे तो उल्लंघन करे लेकिन यदि पति अनुकूल हो तो आज्ञा लेकर ही सेवा करनी चाहिए। यही शिष्टाचार है।
पति की ही भाँति सास ससुर माता पिता गुरु, आदि की यथायोग्य लोगों के आशीर्वाद और आज्ञा लेकर ही छोटो को सेवा पूजा करनी चाहिए। बड़ो की और सन्तों की आज्ञा में रहकर वर्तन करना ही शास्त्र की मर्यादा है और इसी से भगवान् प्रसन्न होते हैं।
यदि बड़े भी नास्तिकता वश जप भजन आदि की आज्ञा न दें, तो उनकी भी आज्ञा का पालन न करने से भी कोई दोष नहीं होता।
लेकिन बड़े होने के नाते उनकी आज्ञा एक बार लेनी चाहिए, न मानें तो साम दाम लगाकर प्रयास करना चाहिए। जब कोई उपाय न हो तो स्वयम् आज्ञा का उल्लंघन करें।।
इसी लिए गोस्वामी जी ने कहा है---
#जाके प्रिय न राम वैदेही।
ताजिय ताहि कोटि वैरी सम यद्यपि परम सनेही।
बलि गुरु त्यजेउ कन्त ब्रज वनितन्हि भये जग मंगल कारी।(विनय .१७४)।।
सो सब करम धरम जरि जाऊ।।....
- आचार्य मण्डन मिश्र का लेख (थोडा मेरे द्वारा परिष्कृत)
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जो "सर्वं खलु इदं ब्रह्म" में मानते हैं वे ही ब्रह्मवादी हैं।
यह सर्व जगत् निश्चित् ही ब्रह्म है। जैसे मटके को देखकर कहा जाता है कि तत्त्व से यह मिट्टी है वैसे ही जगत् को देखकर कहा जाता है यह तत्त्व से ब्रह्म ही है।
जगत् ब्रह्म का रूप होने से ही सत्य है। अगर जगत् मिथ्या हो, तो जो वस्तु है ही नहीं उसके साथ हमेशा रहने वाले ब्रह्म का ऐक्य कैसे हो सकता है?
क्या आप मिथ्या साँप को देखकर कहते हैं कि यह साँप रस्सी ही है? या रस्सी को देखकर कहते हैं कि यह रस्सी ही साँप है? रस्सी सच्ची है और साँप झूठा, जो है ही नहीं वह हमेशा रहने वाले से एक न हो सकता। ब्रह्म सत्य और जगत् मिथ्या, इसलिए जगत् ब्रह्म का रूप न होकर माया का रूप मानना होगा। इससे ब्रह्मवाद की हानि होगी।
जगत् के मिथ्या होने पर आपको यह कहना चाहिए कि जगत् ब्रह्म नहीं है। जैसे कोई भ्रान्त व्यक्ति साँप देखने बाद कहता है कि यह तो रस्सी है साँप नहीं, वो कभी साँप और रस्सी में एकता नहीं देखता। साँप अलग है रस्सी अलग। तत्त्व से साँप और रस्सी का कोई मेल नहीं, कोई नहीं बोलता साँप तत्त्व से रस्सी है।
लेकिन मटके को देखकर कहा जाता है कि यह पृथिवी तत्त्व है, बर्फ को देखकर यह जल तत्त्व है। वैसे ही इदं ऐसा निर्देश करके कहा गया है यह जगत् जो है वह ब्रह्म तत्त्व है।
ब्रह्मवाद में ब्रह्म जगत् बनता है। दूसरे जगह माया जगत् बनती है ब्रह्म में सिर्फ उसका भास होता है। ब्रह्मवाद में ब्रह्म जगत् बनता है, जगत् रूपमें रहता है और फिर जगत् में ही लीन होता है, मिथ्यावाद में ब्रह्म जगत् नहीं बनता, जगत् का अस्तित्व ही नहीं है बस भान है, और जगत् का लय भी न होकर समूल नाश है (माया सहित जैसे साँप गायब होता है, रस्सी में मिलटा नहीं वैसे ही) जगत् बस अपने मूल अविद्या सहित गायब हो जाता है) ।
सर्वं खलु इदं ब्रह्म को सीधा सीधा अर्थ में मानने वाले मात्र जगद्गुरु वल्लभाचार्य हैं। अन्य सभी वाद वेदों के करीब हैं लेकिन सटीक ब्रह्मवाद का स्वरूप यही है।
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पुरुष सूक्त--- पुरुषसूक्त ऋग्वेद संहिता के दसवें मण्डल का एक प्रमुख सूक्त यानि मंत्र संग्रह (10.90) है, जिसमें एक विराट पुरुष की चर्चा हुई है और उसके अंगों का वर्णन है। इसको वैदिक ईश्वर का स्वरूप मानते हैं। विभिन्न अंगों में चारो वर्णों, मन, प्राण, नेत्र इत्यादि की बातें कहीं गई हैं। यही श्लोक यजुर्वेद (31वें अध्याय) और अथर्ववेद में भी आया है। क्योकि इस सूक्त में अनेक बार यज्ञ आया है और यज्ञ की ही चर्चा यजुर्वेद में हुई है।
पुरुष सूक्त के आरंभिक दो मंत्र और सायण कृत भाष्य, वेदों (और सांख्य शास्त्र में) में पुरुष शब्द का अर्थ जीवात्मा तथा परमात्मा आया है, पुरुष लिंग के लिए पुमान और पुंस जैसे मूलों का इस्तेमाल होता है। पुम् मूल से ही नपुंसकता जैसे शब्द बने हैं।
ऋग्वेद के दशम मंडल का 90 वां सूक्त पुरुष सूक्त कहलाता है। इस सूक्त का
ऋषि नारायण है और देवता पुरुष है। सूक्तं 10.89ऋग्वेदः - मण्डल 10 सूक्तं
10.90 नारायणः । सूक्तं 10 .91 →देवता पुरुषः 1 अनुष्टुप्, 16 त्रिष्टुप् I
पुरुष वह है जो प्रकृति को प्रभावित कर सके । पुरुष सूक्त को समझने की कुंजी हमें स्कन्द पुराण 6.231 से प्राप्त होती है जहां पुरुष सूक्त का विनियोग विष्णु की मूर्ति की अर्चना के विभिन्न स्तरों पर किया गया है। सूर्य के समतुल्य तेजसम्पन्न, अहंकारहित वह विराट पुरुष है, जिसको जानने के बाद साधक या उपासक को मोक्ष की प्राप्ति होती है । मोक्षप्राप्ति का यही मार्ग है, इससे भिन्न और कोई मार्ग नहीं है I पुरुष सूक्तं, वैष्णव सम्प्रदाय के 5 सूक्तों में से एक है शेष चार सूक्त हैं नारायण सूक्तं, श्री सूक्तं , भू सूक्तं और नील सूक्तं I
पुरुष सूक्तं को हम सबसे पहले ऋग्वेद में देखते हैं , ऋग्वेद के दसवें मंडल का 90 वां सूक्त पुरुष सूक्त है , इसके बाद हम इसे सामवेद और अथर्ववेद में भी कुछ परिवर्तन के साथ देख सकते हैं पुरुष सूक्त के शीर्षक पुरुष पुरुषोत्तम , नारायण हैं, जो की विराट पुरुष के रूप में हैं उनसे ही सारी सृष्टि का निर्माण हुआ , इस सूक्त में बताया गया है कि उनके हज़ार सर, कई आंखें , कई टांगें हैं , वे हर जगह व्याप्त हैं, वे समझ से परे हैं, सारी सृष्टि उनका चौथा हिस्सा है केवल, और उनका बाकी का हिस्सा अव्यक्त है I वह पुरुष ब्रह्मा के रूप में मंद रहा, और अनिरुध नारायण जो कि नारायण के चार रूपों में से एक है , ने कहा कि ''तुम कुछ करते क्यों नहीं ?''ब्रह्मा ने उत्तर दिया , '' क्यूंकि मैं कुछ जानता नहीं '' , तब अनिरुध नारायण ने कहा , '' तुम यज्ञ करो , तुम्हारी इन्द्रियां जो कि देवता हैं ,ऋत्विक बनेंगी , तुम्हारा शरीर हविष्य बनेगा , तुम्हारा ह्रदय यज्ञ कि वेदी बनेगा , मैं उस हविष्य को ग्रहण करूँगा , तुम अपने शरीर का बलिदान दो उससे सभी शरीर बनेंगे , ऐसा ही करो जैसा कि तुम अन्य कल्पो में करते आये हो ''
इस तरह से वह यज्ञ ''सर्वहूत '' यज्ञ हुआ { जिसमे सब कुछ की आहुति दी गयी हो } उत्पत्ति की संरचना इसप्रकार यज्ञ से हुयी इस यज्ञ में पुरुष को आहुति दी गयी , ब्रह्मा द्वारा , ऋत्विक ब्रह्मिन , देवता बने जो की ब्रह्मा की इन्द्रियां थे , यज्ञ प्रकृति रुपी वेदी पर किया गया , यज्ञ की अग्नि पुरुष का ह्रदय थी,, यज्ञ में आहुति किसकी दी गयी ? पुरुष की , जिसमे सारी सृष्टि समाहित थी I इस प्रकार पुरुष सूक्त , प्रेम का सन्देश देता है की पुरुष स्वयं को ही सृष्टि की अग्नि में ग्रहण करेगा , ताकि सृष्टि का सृजन हो सके , इस प्रकार आहुति , बलिदान से ही सारी सृष्टि का प्रारंभ हुया , यही पुरुष सूक्तं का सन्देश है
- सुद्युम्न आचार्य
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गणेश विसर्जन :- ( गोबर के गणेश )
यह यथार्थ है कि जितने लोग भी गणेश विसर्जन करते हैं उन्हें यह बिल्कुल पता नहीं होगा कि यह गणेश विसर्जन क्यों किया जाता है और इसका क्या लाभ है ??
हमारे देश में हिंदुओं की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि देखा देखी में एक परंपरा चल पड़ती है जिसके पीछे का मर्म कोई नहीं जानता लेकिन भयवश वह चलती रहती है
आज जिस तरह गणेश जी की प्रतिमा के साथ दुराचार होता है , उसको देख कर अपने हिन्दू मतावलंबियों पर बहुत ही ज्यादा तरस आता है और दुःख भी होता है ।
शास्त्रों में एकमात्र गौ के गोबर से बने हुए गणेश जी या मिट्टी से बने हुए गणेश जी की मूर्ति के विसर्जन का ही विधान है ।
गोबर से गणेश एकमात्र प्रतीकात्मक है माता पार्वती द्वारा अपने शरीर के उबटन से गणेश जी को उत्पन्न करने का ।
चूंकि गाय का गोबर हमारे शास्त्रों में पवित्र माना गया है इसीलिए गणेश जी का आह्वान गोबर की प्रतिमा बनाकर ही किया जाता है ।
इसीलिए एक शब्द प्रचलन में चल पड़ा :- "गोबर गणेश"
इसिलिए पूजा , यज्ञ , हवन इत्यादि करते समय गोबर के गणेश का ही विधान है । जिसको बाद में नदी या पवित्र सरोवर या जलाशय में प्रवाहित करने का विधान बनाया गया ।
अब आईये समझते हैं कि गणेश जी के विसर्जन का क्या कारण है ????
भगवान वेदव्यास ने जब शास्त्रों की रचना प्रारम्भ की तो भगवान ने प्रेरणा कर प्रथम पूज्य बुद्धि निधान श्री गणेश जी को वेदव्यास जी की सहायता के लिए गणेश चतुर्थी के दिन भेजा।
वेदव्यास जी ने गणेश जी का आदर सत्कार किया और उन्हें एक आसन पर स्थापित एवं विराजमान किया ।
( जैसा कि आज लोग गणेश चतुर्थी के दिन गणपति की प्रतिमा को अपने घर लाते हैं )
वेदव्यास जी ने इसी दिन महाभारत की रचना प्रारम्भ की या "श्री गणेश" किया ।
वेदव्यास जी बोलते जाते थे और गणेश जी उसको लिपिबद्ध करते जाते थे । लगातार दस दिन तक लिखने के बाद अनंत चतुर्दशी के दिन इसका उपसंहार हुआ ।
भगवान की लीलाओं और गीता के रस पान करते करते गणेश जी को अष्टसात्विक भाव का आवेग हो चला था जिससे उनका पूरा शरीर गर्म हो गया था और गणेश जी अपनी स्थिति में नहीं थे ।
गणेश जी के शरीर की ऊष्मा का निष्कीलन या उनके शरीर की गर्मी को शांत करने के लिए वेदव्यास जी ने उनके शरीर पर गीली मिट्टी का लेप किया । इसके बाद उन्होंने गणेश जी को जलाशय में स्नान करवाया , जिसे विसर्जन का नाम दिया गया ।
बाल गंगाधर तिलक जी ने अच्छे उद्देश्य से यह शुरू करवाया पर उन्हें यह नहीं पता था कि इसका भविष्य बिगड़ जाएगा।
गणेश जी को घर में लाने तक तो बहुत अच्छा है , परंतु विसर्जन के दिन उनकी प्रतिमा के साथ जो दुर्गति होती है वह असहनीय बन जाती है ।
आजकल गणेश जी की प्रतिमा गोबर की न बना कर लोग अपने रुतबे , पैसे , दिखावे और अखबार में नाम छापने से बनाते हैं।
जिसके जितने बड़े गणेश जी , उसकी उतनी बड़ी ख्याति , उसके पंडाल में उतने ही बड़े लोग , और चढ़ावे का तांता।
इसके बाद यश और नाम अखबारों में अलग ।
सबसे ज्यादा दुःख तब होता है जब customer attract करने के लिए लोग DJ पर फिल्मी अश्लील गाने और नचनियाँ को नचवाते हैं ।
आप विचार करके हृदय पर हाथ रखकर बतायें कि क्या यही उद्देश्य है गणेश चतुर्थी या अनंत चतुर्दशी का ?? क्या गणेश जी का यह सम्मान है ??
इसके बाद विसर्जन के दिन बड़े ही अभद्र तरीके से प्रतिमा की दुर्गति की जाती है।
वेदव्यास जी का तो एक कारण था विसर्जन करने का लेकिन हम लोग क्यों करते हैं यह बुद्धि से परे है ।
क्या हम भी वेदव्यास जी के समकक्ष हो गए ??? क्या हमने भी गणेश जी से कुछ लिखवाया ?
क्या हम गणेश जी के अष्टसात्विक भाव को शांत करने की हैसियत रखते हैं ??????????
गोबर गणेश मात्र अंगुष्ठ के बराबर बनाया जाता है और होना चाहिए , इससे बड़ी प्रतिमा या अन्य पदार्थ से बनी प्रतिमा के विसर्जन का शास्त्रों में निषेध है ।
और एक बात और गणेश जी का विसर्जन बिल्कुल शास्त्रीय नहीं है।
यह मात्र अपने स्वांत सुखाय के लिए बिना इसके पीछे का मर्म , अर्थ और अभिप्राय समझे लोगों ने बना दिया ।
एकमात्र हवन , यज्ञ , अग्निहोत्र के समय बनने वाले गोबर गणेश का ही विसर्जन शास्त्रीय विधान के अंतर्गत आता है ।
प्लास्टर ऑफ paris से बने , चॉकलेट से बने , chemical paint से बने गणेश प्रतिमा का विसर्जन एकमात्र अपने भविष्य और उन्नति के विसर्जन का मार्ग है।
इससे केवल प्रकृति के वातावरण , जलाशय , जलीय पारिस्थितिकीय तंत्र , भूमि , हवा , मृदा इत्यादि को नुकसान पहुँचता है ।
इस गणेश विसर्जन से किसी को एक अंश भी लाभ नहीं होने वाला ।
हाँ बाजारीकरण , सेल्फी पुरुष , सेल्फी स्त्रियों को अवश्य लाभ मिलता है लेकिन इससे आत्मिक उन्नति कभी नहीं मिलेगी ।
इसीलिए गणेश विसर्जन को रोकना ही एकमात्र शास्त्र अनुरूप है ।
चलिए माना कि आप अज्ञानतावश डर रहे हैं कि इतनी प्रख्यात परंपरा हम
अवश्य सुनें
भक्तमाल कथा
https://youtube.com/playlist?list=PLXOx1nQKcemuSDBU93womNzPb0ZBW4KPA
Start at 25th minutes if want to skip the intro.
तुलसी के मत भेद प्रधान अभेद का है। श्रीराम ब्रह्म हैं उनके समान जीव कभी नहीं हो सकता। अतः भेद सत्य है। किन्तु यह भेद अभेद अर्थात् निमित्त और उपादान कारण की एकता का विघात न करके और शरीर-शरीरि-भाव में एकता को भी बनाए रखता है।
"माया बस परिच्छिन्न जड़ कि ईस समान?"
यह जड़ और जीव तो माया के वश होने से परिच्छिन्न हैं, वह कैसे ईश्वर के समान हैं?
श्रीराम का स्वरूप नारायण हैं जिनका पूरा चिदचिद् शरीर है। और राम उसके अन्तर्यामी। जीव भगवान् का अंश है। और माया से कल्पित नहीं, वास्तविक अंश है।
"ईश्वर अंश जीव अबिनासी चेतन अमल सहज सुखरासी।"
सामान्य धारणा में जीव अविद्या से कल्पित है। किन्तु यह तुलसी को न स्वीकार। अविद्या से कल्पित होने पर तो वह सहज सुखरासी न रहेगा। अतः जीव स्वतः सच्चिदानन्द है। और अमल यानि मल/अविद्या से रहित है।
भगवान् राम की दो नित्य शक्तियाँ हैं। विद्या और अविद्या। अधिक विस्तार के भय से वर्णन नहीं कर रहा। विद्या से जीव को मोक्ष और भक्ति मिलती है और अविद्या से वह संसार में रमण करता रहता है। विद्या और अविद्या दोनों ही सत्य हैं और भगवान् की शक्तियाँ हैं, अतः जगत् जैसे जो माया के कार्य हैं वे भी सत्य हैं।
मङ्गल श्लोक में तुलसी कहते हैं "यत्सत्त्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः" जिस माया के होने से यह सकल सत्य जगत् भी उस तरह मिथ्या प्रतीत होता है जैसे किसी को रस्सी में सर्प दीखता है।" भगवान् माया से सत्य जगत् भी मिथ्या लगने लगता है।
सङ्क्षेप में कहें तो तुलसीदासजी भक्तिमार्गी आचार्य थे। उन्होंने ज्ञान और कर्म को भक्ति का अङ्ग माना, श्रीराम को पूर्ण शुद्ध साकार ब्रह्म और सकल जड़ जीव को राम के माया के अधीन माना।
जय श्रीराम ।
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Why 'Bhakti Movement' is Marxist Propoganda
Marxist Propgandists have shown Vaishnava Acharyas and Sants as some Reformists who tried to dilute the Brahmanical and Vedic Hinduism.
Vedas are the root if Hinduism, and the Sole Duty of Preaching Vedas is only to Brahmanas, it is not a right, it is a Duty which has been laid upon them by Paramatma itself and they're supposed to learn and teach Vedas since birth.
Vaishnava Acharyas like Ramanuja are considered to be the ones to start the Bhakti Movement.
It is definitely true that Ramanujacharya revived and popularized Bhakti again among the masses. But he has not opposed anything of the Vedas. Pashubali has not been opposed, He did not allow Shudras to read Vedas, and what he did was He showed how Shastras are not granting Moksha only to Brahmanas, which was the previous misconception.
Entry into temples which did not violate Vedic Norms was popularized and promoted.
Ishvara Brahm Purushottama God Allah are the Same?
Ishvara means one who has Controlership over Entire Universe. Ishvara is Allknowing and He is Cause of Birth Staying and Dissolution of Universe/s. Ishvara is only 1.
God does not mean Ishvara even though it sounds similar. God means Devata or Diety. God comes from the Sanskrit word हुत, Hu means to sacrifice. The one whom the sacrificial offerings reach are हुत, the word change slowly to Ghut and then to God. This word is of Germanic Origin and entered English. All Pagans who sacrified to these special governing forces where hence called Hutas or Gods.
Deva means to Shine or Play. There are 10 meanings assigned as per Sanskrit Grammar but the meaning which was adopted by Western Pagans was of Luminosity. Since the sky shines it is called Div in Sanskrit which changes to Dyaus by a rule दिव उत्. Since the Dieties are Shining they started being called Devas (from) Div and Dios in Latin again from the common root Div.
Devatas where not considered as Supreme Beings who controlled entire Universe but they controlled only some specific function, like controllership of Sea was with Varuna here and Poseidon there. In the West there was no Common Origin to all these Dieties hence they are Polytheistic.
But we have another Diety called by names Mahavishnu, Vasudeva, Narayana in his Purusha form who gives rise to all other Dieties. देवा नारायणाङ्गजाः (Bhagavata = all Devas rise through parts of Narayana). This is the Viraat Purusha form which Krishna shows, where all Dieties are as Parts of His body and He himself is the Ishvara using these forces to control individual aspects of the Universe.
God in Christianity and Islam is 1 single Diety which controls the Universe. He is a Diety. Don't confuse him with Ishvara or Brahm. Ishvara is Also a Diety.
But there are alot of Specialities in Ishvara lacking in any of the Avedic Thoughts.
Allah is not Omnipresent. Ishvara is. God/Yahveh has various beliefs of its Omnipresence within Christian/Jewish schools. Both are not Omnipotent, they are bound by their own nature in terms of decision making etc. They cannot a forgive a sinner who worships someone else, they lack Compassion and are Partial. वैषम्य-नैर्घृण्य.
Their God or Allah is Ethical whereas ours is Meta-Ethical (Beyond Ethics). The word of God is Ethics here, and if God makes a rule he cannot break it. The Redemption of souls is also based on their Ethics (code set by God).
Whereas our Ishvara is beyond anything like Ethics, He follows Dharma only by will for Loka-Sangraha (inspiring others). He does not provide Moksha based on Paapa and Punya but he does that when the Soul has been cleansed of all Ethics and Papa-Punya. As our Ishvara is Meta-Ethical his Moksha also is Meta-Ethical.
There is no concept of Leela in Avedic faiths and even in Avedic Anarya Namaj types. Hence their God and Allah have the stain of Vaishamya and Nairghrinya (partiality and cruelty). The God provides free-will to souls, He then puts those who worship Him into Heaven and those who dont into Hell.
Ishvara is free from all this. Ishvara doesn't create for any purpose. All his deeds are juat purposeless divine passtimes. As Time is cyclical and beginningless, the previous Karmas decide the fate of individual souls and Ishvara is Kevala (unattached) to all Wordly Material Stuff.
Bhagavan is an aspect of Ishvara. Bhaga are six qualities called = Aishwarya (all-Controlership and opulence), Veerya (Valour), Yashas (Glory), Shree (Splendour), Jnana (Knowledge of All) and Vairagya (Unattachedment). Such qualities are also present in certain Humans and Devas hence we refer to them as Bhagavan Indra etc.
But all 6 are A) Infinitely Prsent B) Present all the time C) Are Natural Qualities not Acquired in only 1 Ishvara. Who is Undoubtedly Krishna/Narayana. कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्। Other Dieties have these qualities in limited amount, and are acquired not natural, acquired or borrowed from Krishna.
Is channel par puri Gita available hai.
Jarur dekhe
https://youtube.com/playlist?list=PLQF4f1EFj7fq2ypKOmXsODV4vjLBcbxow
10 TYPES OF IDIOTS AMONG HINDUS
NOTE: Intelligent people could also ake such decisions due to valid reasons. this post talks only about idiots.
Hinduism today has a lot of enemies - not only outside but also inside. Here's a list of ten types of the internal ones.
1. Idiots who said "Hinduism is not a religion, I'll be as liberal as I want and be friendly with everyone" and eventually got either converted or massacred
2. Idiots who refused to acknowledge scriptures and said they'll seek out answers by themselves but never really sought and thus gave birth to irreligious children who have no regard for our Dharma
3. Idiots who vote for the wrong political parties
4. Idiots who don't openly protest against anti hindu narratives on digital as well as print media
5. Idiots who think that Hinduism is regressive and that moving away from it is the only way to develop civilization
6. Idiots who decided not to marry and have kids despite Dhamashastras mandting it, and statistics of other religions showing that they multiply very quickly
7. Idiots who indulge in caste/gender based oppression under the name of Hinduism/Smriti and defame Hinduism.
8. Idiots who follow frauds like Ram Rahim or Jhakki Badguru instead of authentic Gurus and later start hating Hinduism itself once their guru's fraudulence is exposed/or when they realize truth.
9. Idiots who think that Sanatana Dharma is so great that there's absolutely nothing for us to do to follow and protect and that it would exist forever
10. Idiots who don't listen when authentic Acharyas speak, never support them or their Gurukuls and Ashrams and let their disciples to live in poverty, but then complain when Hinduism is attacked that these Acharyas are not coming forward to defend us.
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a by birth itself and must follow Shudratva as shown in the Shastras (which involves service to the members of the other Varnas who are properly retaining their Varna status by practising their karma as per Dharmic morals). A Shudra can fall further if he/she becomes adharmic - they can turn into Chandalas and avarnas. And eventually Mlecchas. Any once-Dharmic lineage can turn into Mlecchas - one lineage of Yayati's own sons have turned into Mlecchas. The Mahabharata also says that beyond the western deserts of Bharatavarsha near the lands of the Ramatha, Shudras and Mlecchas are kings of that land. Thus, falling into avarnatva is very easy. Retaining Varna is very tough but must be done for good things are always going to be tough to do but must be done nevertheless.
Don't be too proud of your surname. A surname speaks only about your forefathers. It says little to nothing about you whatsoever.
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Dear Hindus,
If you fall sick, do you go to an authentic doctor, or just eat medicines prescribed by a random person on social media?
If you want to understand a scientific research paper, would you approach a scholar in that field, or would you assume anybody and everybody to be a scholar and start believing in whatever they say?
If you want to learn Business Administration, would you learn from an authentic college, or would you learn from strangers on social media? Even the best books can't teach you MBA fully. Only qualified experts can.
Be it theoretical knowledge, practical knowledge or health, we always seek only authentic sources.
Why then do we not do the same thing in Sanatanadharma? How come people seek knowledge from strangers without verifying their authenticity?
When we do not know something, why to make public posts, seek answers from everyone, and get confused and/or misled?
We have traditional pathashalas. People respect them but don't want to study there. We have traditional gurus and paramparik acharyas of authentic sanpradayas. But people don't want to seek them either.
People want knowledge, but are so greedy that they don't care about authenticity. And after all these failures to support traditional gurus and Acharyas, when they get into any problem, these same people immediately ask
"What have traditional gurus and Acharyas done to save dharma?"
There's no bigger hypocrisy than this.
As long as people ignore traditional gurus and seek knowledge from anybody and everybody,
1. Misconceptions and misunderstandings about Sanatanadharma will only keep on increasing.
2. Conversions away from Hinduism will keep on increasing.
3. Traditional, authentic gurus and institutions will continue to suffer and continue to be helpless.
4. Fake scholars who have read books and interpreted based on their little knowledge would keep on increasing.
5. Anti-Hindu interpretations of Hindu scriptures would continue to rise.
6. The lives of great saints and scholars who spent their entire lives in protecting scriptures by giving the correct interpretation through commentaries and sub-commentaries would go waste.
Hence, dear friends, stop being greedy for knowledge. If you don't know certain things, it's absolutely OK. No need to learn from random people who pass on their comments after self-interpreting. No need to self-interpret and present yourself as a scholar in front of everyone.
If you have a Guruparampara, cite your Poorvacharyas. If you don't have a Guruparampara, seek one instead of competing with the millennia old tradition mandated by the scriptures themselves.
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अधर्म की पाँच शाखाएँ हैं― विधर्म, परधर्म, आभास, उपमा और छल।
जिस कार्य को धर्म बुद्धि से करने पर भी अपने धर्म में बाधा पड़े, वह विधर्म है।
किसी अन्य के लिये उपदेश किया हुआ धर्म परधर्म है।
पाखण्ड या दम्भ का नाम उपधर्म अथवा उपमा है।
शास्त्र के वचनों का दूसरे प्रकार का अर्थ कर देना छल है।
मनुष्य अपने आश्रम के विपरीत स्वेच्छा से जिसे धर्म मान लेता है, वह धर्माभास है।
- सनन्दन वैश्य
. The Sons of Vishvamitra should be Kshatriya by this Gene Theory because they don't have the Brahmana Genes now.
If you emphasize so much over Genes Blood or DNA, you're making a fool of yourself. This is Pseudo-science as the Old Darwinian Model has long been rejected. This is Epic eg of Raitahood, similar to what dimwits speak of Radiations in Mandir Bells, Downward flow in Period Blood and what not. I dont deny Biological Benefits of not marrying in Same Gotra or having similar occupation and similar Genes and similar bloodline. What I explain is that these Physical Traits aren't a Parameter to Determine Varna. Because there are many Shaastriya Methods to have a different bloodline still inherit Varna in previous Yugas.
The reason why today Intervarna marriage is denied isn't due to Physical Gene Maintainance or maintaining Bloodline, it is the imbalance of Gunas (Sattva rajas tamas) which will take place if you intermarry and produce. Such imbalance could be avoided in Previous Yugas due to Tapas of Brahmanas. Today they dont have such Tapas and powers, so imbalance in Non-physical Gunas would create progeny with mixed Gunas. Such imbalance of Gunas would prevent Varna to flow in future Generations and make you Unauthorized for Upanayana.
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सूरदास जयन्ती पर सूरदासजी कृत हरि और शिव की सुन्दर स्तुति 🙏
हरिहर सङ्कर नमो नमो
श्रीहरि और श्रीशङ्कर एक ही स्वरूप (चैतन्य) से अवस्थित है। इन दोनों शङ्करों को मेरा (सूर का) प्रणाम है।
अहिसायी अहि-अङ्ग-विभूषण, अमितदान, बलविषहारी ।
दोनों में बहुत साम्य है। भगवान् विष्णु शेषनाग की शैय्या बनाकर विश्राम करते हैं और भगवान शंकर नागो को अङ्गों पर भूषण बनाकर धारण करते हैं। भगवान् जगत् का पालन करते हुए सबको अनन्त दान करने वाले हैं तो भगवान शङ्कर ने प्रचण्ड विषपान कर सम्पूर्ण सृष्टि को प्राणदान किया।
नीलकण्ठ, बर नीलकलेवर; प्रेम परस्पर, कृतहारी ।
श्रीकृष्ण का सारा शरीर नीले रङ्ग का है, उधर शङ्कर ने भीषण विषपान करके अपने को नीलकण्ठी बना रखा है। ये दोनों ही प्रभु एक दूसरे से समान प्रेम करते हैं, दोनों ही अशुभ कर्मों का नाश करने वाले हैं।
चन्द्रचूड़, सिखि-चन्द्रसरोरुह; जमुनाप्रिय, गङ्गाधारी ।
ये दोनों समानधर्मी हैं। एक तो मस्तक पर चन्द्रमा को धारण करते हैं तो दूसरे चन्द्रकला जैसे मोरपङ्खों को अपने मस्तक पर धारण किए रहते हैं। एक को यमुना प्रिय है तो दूसरे गङ्गाधारी हैं। एक गायें चराने जाते हैं तो उनका सम्पूर्ण शरीर गायों की रेणु से मण्डित है और दूसरे भस्म से विभूषित हैं।
सुरभिरेनुतन, भस्मविभूति; वृषवाहन, वनवृषचारी ।
भगवान् शङ्कर बैल की सवारी करते हैं तो श्रीकृष्ण जङ्गल में बछड़े चराते हैं। ये दोनों एक जैसे हैं। अजन्मा, अनीह, कृपालु और एकरस। इन दोनों के कामों के कोई अन्तर नहीं है।
अज अनीह अविरुद्ध एकरस, यहँ अधिक ये अवतारी ।
सूरदास सम-रूप-नाम-गुन, अन्तर अनुचर-अनुसारी ।।
किन्तु विष्णु में एक बात अधिक है, यह अवतारी हैं और शिव उनके अंश अवतार।
सूरदास कहते हैं - “रूप, नाम और गुण तीनों इन दोनों में समान हैं, केवल अन्तर यह है कि एक अनुचर हैं और दूसरा उसके स्वामी अनुसरण करवाने वाले ।
सम्पूर्ण बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, बंगाल, आसाम तथा नेपाल के भागों में धर्मशास्त्र की तीन परम्पराएँ हैं-
1. बनारसी परम्परा (Varanasi school of Law)
2. मिथिला परम्परा (Mithila School of Law)
3. गौड़ीय परम्परा (Bengal School of Law)
इनमें दूसरे और तीसरे में बहुत समानता है।
मिथिला तथा बंगाल की परम्परा नैबन्धिक है। यहाँ हमारे प्राचीन धर्मशास्त्री श्रीदत्त, चण्डेश्वर, वाचस्पति, रुद्रधर, महेश ठाकुर, अमृतनाथ आदि जो निर्देश दे गये है, वही मान्य है।
बंगाल में भी रघुनन्दन प्रमाण के रूप में स्वीकृत हैं।
बनारस-परम्परा में निर्णयसिन्धु, धर्मसिन्धु, स्मृतिकौस्तुभ, स्मृतिचन्द्रिका मान्य ग्रन्थ हैं।
कृत्यकल्पतरु, चतुर्वर्गचिन्तामणि एवं वीरमित्रोदय ये तीनों सन्दर्भ-ग्रन्थों के रूप में सर्वत्र मान्य हैं।
आज आवश्यकता है कि हम अपनी परम्परा को पहचानें उसका पालन करें तथा दूसरी परम्परा का आदर करें।
अपनी परम्परा दूसरे के ऊपर थोपने का कार्य तो कतई न करें।
जब लोग अपनी परम्परा का समर्थन करें तो उसे "वैमनस्य" का नाम न दें।
मिथिला छोटी है, पर इसकी शास्त्र-परम्परा बहुत बड़ी है!!
~Bhavanath Jha
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तोड़ दें तो करिए विसर्जन । लेकिन गोबर के गणेश को बनाकर विसर्जन करिए और उनकी प्रतिमा 1 अंगुष्ठ से बड़ी नहीं होनी चाहिए ।
मुझे पता है मेरे इस पोस्ट से कुछ नासमझ लोगों को ठेस लगेगी और वह मुझे हिन्दू विरोधी घोषित कर देंगे।
पर हम अपना कर्तव्य निभायेंगे और सही बातों को आपके सामने रखते रहेंगे ।
बाकी का - सोई करहुँ जो तोहीं सुहाई ।
स्पष्टीकरण- यह पोस्ट जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से साझा की गयी है। सहमत होना या ना होना आपका फ़ैसला है। बात सिर्फ़ इतनी है हमें उन मान्यताओं को अपनाना होगा जिससे सनातन संस्कृति की सही छवि दुनिया भर में फैले।
साभार🙏
© (शास्त्री अश्विनिकुमार पाण्डेय)
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Gita Saroddhara is a Gem of a Book written by Swami Vishveshatirthiji of Pejavar Matth.
Anyone wants to know crux of Gita should read this.
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तुलसीदासजी नाना पुराण निगम और आगम से सम्मत बात कहने की प्रतिज्ञा करते हैं। तुलसीदासजी शुद्ध साकार ब्रह्म में मानने वाले हैं। वे परम वैष्णव हैं और श्रीरामानन्दाचार्य के शिष्य श्रीनरहरिदासजी से दीक्षित हैं।
सभी वैष्णवों की तरह तुलसीदासजी भी साकार-ब्रह्मवादी हैं और उनके परम्ब्रह्म धनुर्धारी जानकी पति सच्चिदानन्द आकार वाले श्रीराम हैं।
तुलसी देवताओं के मुखसे कहलवाते हैं
अज ब्यापकमेकमनादि सदा। करुनाकर राम नमामि मुदा।।
राम (सगुन साकार) अजन्मा व्यापक और अनादि और सदा रहने वाले करुणा से आकर को मैं नमन करता हूँ।
सामान्य और प्रचलित मान्यता में श्रीराम विष्णु के अवतार हैं किन्तु तुलसी के राम अवतार नहीं साक्षात् ब्रह्म हैं, अवतारी हैं। तुलसी ब्रह्म को निर्गुण निराकार नहीं मानते। वे समझाते हैं कि सगुण साकार ही व्याप्त रूप से निर्गुण निराकार है।
जो गुन रहित सगुन सोई कैसे
जलु हिम उपल बिलग नही जैसे।
जो निर्गुण है वो सगुण कैसे?
जैसे जल और ओले में या बर्फ में भेद नहीं। दोनों जल ही है ऐसे ही सगुण और निर्गुण एक ही हैं।
जैसे सूर्य तेजःपुञ्ज का घन है वही तेज तो रश्मि रूपसे व्याप्त हो रहा वैसे ब्रह्म सच्चिदानन्द धनुर्धारी नीलवर्ण श्रीराम हैं, किन्तु अपने तेज और गुणों से वही राम सर्वव्यापी हैं।
तुलसी के राम सर्वश्रेष्ठ
सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनू । बिधि हरि हर बंदित पद रेनू॥
हे प्रभो! सुनिए, आप सेवकों के लिए कल्पवृक्ष और कामधेनु हैं। आपके चरण की धूल का ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी वन्दन करते हैं।
मा सीता ही जगदम्बा
उमा रमा ब्रह्माणि बन्दिता। जगदम्बा संततमनिन्दिता॥5॥
(शिव जी कहते हैं-) जगज्जननी सीता जी, उमा रमा और ब्रह्माणी (सरस्वती) आदि देवियों से सदा वन्दित और सदा अनिन्दित (सर्वगुण सम्पन्न हैं) ॥5॥
श्रीराम के अंश ही त्रिमूर्ति हैं।
सम्भु बिरञ्चि बिष्णु भगवाना । उपजहिं जासु अंस तें नाना ।।
जिनके (श्रीरामके) एक अंश से नाना अनेक ब्रह्मा विष्णु और महेश उत्पन्न होते हैं।
जासु अंस उपजहिं गुनखानी । अगनित रमा उमा ब्रह्माणी ।।
भृकुटि बिलास जासु जग होई।
राम बाम दिसि सीता सोई ।।
जिनके अंश से गुणों की खान अगणित लक्ष्मी, पार्वती और ब्रह्माणी (त्रिदेवों की शक्तियाँ) उत्पन्न होती हैं तथा जिनकी भौंह के इशारे से ही जगत् की रचना हो जाती है, वही (भगवान् की स्वरूपा-शक्ति) सीता राम की बाईं ओर स्थित हैं।
इस प्रकार साकेतलोक निवासी जगदम्बा सीताजी सहित राम ही पूर्ण ब्रह्म, साकार और अनन्तगुणभूषित हैं। निराकार ब्रह्म और त्रिदेव भी इन्हीं सीता-राम के अंश हैं। निराकार ब्रह्म श्रीराम की अव्यक्त रूपसे सर्वव्यापिता का दूसरा नाम है।
Inclusiveness is the Nature of Bhakti. And it included giving Mantras to all castes and even Mlechhas are eligible to worship Bhagavan. There is no stopping Anyone.
Moksha through Jnanamarga is only open to Brahmanas, but Moksha through Vaishnava Pancharatra Shastras, Ramayana, Mahabharata, Bhagavata Purana etc is Universal. Books where written to explain the crux of thr Upanishads and the Secrets of the Upanishads where elaborated within them withou quoting the Vedas hence making them Universally accessible.
Bhagavata-Shreshthas like Suradasa ji Tulasidasaji Ashtachhapa Bhakta Kavis of Vallabha Pushti Bhakti, Hita Harivamsha ji, Alwar Sants, Annamacharya, Ramadasu ji, Nrisimha Mehta ji, Tukarama ji, Ravidasa ji etc wrote the Essence of Bhakti, the Crux of all Vedas and Vedantic Philosophical concepts in Local languages and made Brahma-jnana easily accessible by All.
Bhakti they proved is the main intent of Upanishads, its not Jnana not Karma, it is how भागवत says ज्ञानवैराग्ययुक्तया श्रुतिगृहीतया भक्त्या (while using सहयुक्तेप्रधाने अप्रधानतृतीया) such Bhakti known through Shruti, where Jnana and Vairagya are Parts
Will give Biggest fruit which is भगवत्-साक्षात्कार (appearance of Hari).
They did not make any reforms or ammendments in Vedas. They revived the Bhakti Which had becomes less popular. And where people where being deluded by delusional philosophies spread in the name of Jnanamarga, Acharyas like Vallabhacharya enlightened the world by Showing the Real Jnana-marga of the True Sankhya-yoga (jnana-yoga) expounded by Maharshi Kapiladeva.
It was Marxists who started using Bhakti Sants and show them as Anti-Vedas, or such people who made changes or ammendments in Vedas. Their purpose was to crrate divide in minds of Hindus and misguide them from Vedic Dharma and teach them Avedic Liberalism in the name of Bhakti.
Kabridasji was never secular. Tulasidasji was completely Brahmanical even though he showed Rama hugging the Nishada. Surdasji wrote how Rama ate the eaten fruits of Shabari, still their was no intent to Seculaize or Liberalize or Reform Dharma.
Reform means the idea that Vedic Dharma was of oldage. Now new rules should come. And hence they spread lies about Dharma to be flexible and Smritis to undergo changes. "Change" itself is Marxist Propoganda. Kabirdasji was student of Ramanandacharya and never said those secular things. All these verses are added later.
Beware of Marxist Propoganda fed to you in the name of Bhakti Movement. Bhakti Movement did happen but was not Reformist and Anti-Brahmanical. It was definitely All-Inclusive. and even the lower class Sants like Tukaramji Ravidasji have written about how Vedic Dharma is only True and Brahmanas are hailed by each! Bhakti is Hailed by the Vedas to be the Only way to reach the Highest Gati. Then why show it as Anti-Vedic/Reformist? Bhakti out of 3 ways to Reach Bhagavan is the Highest way.
Follow @Sudharma_108
Brahm also is the same Tattva called Ishvara. But he is just defined differently.
Brahm is defined as Satchidanand (Absolute existence, Conciusness and Bliss) which will be explained in some other post. This Satchidananda Nature is also lacking within God Allah Yahveh etc. God isnt Absolute Existence isnt Pure Conciousness and even if we accept the above 2 Aananda can never be a part of a Cruel God where There is no Concept of Leela.
Follow @Sudharma_108
Rama ji ne Angada Sugriva Vibhishana sabki Pariksha li lekin sirf Hanumanji pass hue.
Dekhiye adbhut prasang, dil khush ho jaayega katha se 😍
https://youtu.be/KVwsErMy3I0
Channel ko jarur subscribe kare aur dosto se baatein 😊🥰
Jaya Shrirama
Follow @sudharma_108
मानस की सुन्दरतम व्याख्या तुलसीदास जी का सम्प्रदाय (रामानन्दी) के आचार्य द्वारा प्रणीत टीका।।
Читать полностью…All Itihasa and Purana unanimously show us one thing - service to a Brahmana reaps much greater karmic merits than service to anyone else. Why? Is it because others are iNfErIoR?
Others are indeed inferior and that inferiority will be elaborated and explained in this post. Are others inferior simply because they don’t have a Brahmana surname? No. The inferiority lies in Tapobala - penance.
A Brahmana’s tapobala is much much higher at birth itself than any other lineage’s. But is birth alone the sole retaining factor for tapobala and Brahmanatva? No. Birth followed by practice of Shastras according to one’s Varna is paramount to retain oneself in one’s Varna of birth. A Brahmana must lead a life of the sort that would involve greater austerity and religiosity than other Varnas as even the normal rules and regulations of the Shastras which apply to a Brahmana will be much greater in terms of responsibility for him than for anyone else. Why is this? Because the Brahmana's Prarabdhakarmpahala mandates that he do all this to retain his position as Brahmana.
it is for this reason that the Shastras will prescribe the maximum rules for Brahmanas. The do’s for a Brahmana are not as great in number as the dont’s. A person born in a Brahmana lineage who does not perform his Nityakarma and does not maintain all the necessary shuddhi for that Nityakarma to bear fruit (moral and personal hygiene prescribed in the Shastras), will cease to be a Brahmana and will become a Brahmabandhu.
When you serve a Brahmana, you are serving one who was born with Brahmanatva and is retaining his Brahmanatva by the rigorous practice of the Shastras. Simply serving someone with a certain Brahmin lineage’s surname does not mean that you are serving a real Brahmana. You may even be inadvertently serving a Brahmabandhu thinking it is a Brahmana. Given that a Brahmana leads the sort of life that allows him to retain the tapobala of his forefathers, he becomes worthy of being served, you will only stand to gain by serving such a person in whatever capacity Varnashrama allows you to serve him. In this regard, you must note that a Brahmana’s blessing too will carry so much more power as will his curse.
Why must the Brahmana do all this? After all, being a materialistic people who look for returns in all things, one will ask - what is the benefit in a Brahmana being this way?
A Brahmana manifests to take others' sins to expiation, and ensure that wherever his feet touch, only sattvaguna shall dominate over that land. His presence in a land is supposed to end so many sins in that land, that only good people will be born there, diseases won't come there, all Varnas follow their duties according to the Karmic reasons for which they manifested from Brahma and his creations. A Brahmana can be capable of absorbing such sins ONLY IF he follows his Dharma and NEVER otherwise.
A Brahmana's purpose for existing is to help other creatures move closer to Bhagavan - it is called the First Varna for this reason that its truest members can expiate others' sins more than any other living creature can. And this also makes it doubly difficult to retain one's Brahmanatva after being born in a Brahmana lineage, for the necessities to retain this position are humongous in nature and difficult. Yet it is possible and those of these lineages must strive to do this.
When you hear the term Brahmana, start training yourself to make the distinction of - Person born in a Brahmana lineage and nothing more, or person born as a Brahmana and living as one as well. If you come across the former kind, note that touching their feet too is a sin as they have lost their Brahmanatva and have neither moral nor spiritual sanction to bless anyone. They will only pass on their sins to others and gain their sins in turn if they have anyone touch their feet. The same reasoning of birth + way of life applies to all other Varnas. A Kshatriya too must be born a Kshatriya and perform Nityakarma after Upanayana (ceremony of the Yagnyopavitam). Same goes for a Vaishya.
And the Shudra is
https://youtu.be/oCE3AHwDnts
In this Video Acharya clearly says if Yajnopavita not done or done after time limit, 'शास्त्रीय परम्परा के अनुसार उसे ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य नहीं कह सकते'
We cannot call him a Brahmana Kshatriya Vaishya.
Bloodline or no Bloodline, the point is not about bloodline importance here. Main question is "Can Bloodline Determine Varna"? No. Because even with bloodline he is not Brahmana without lineage of Samskaras in Paternal Ancestry.
He shared Raghavacharya ji's video talking रक्तशुद्बि but that was from a video where His Holiness is Generalizing रोटी बचाओ और खून बचाओ, and explaining to mass in simple language. Even taking Daan from some adharmi would mean inheriting his Gunas and Karmas, so is taking food or blood from unauthorized guy, impurity still isn't physical but abt imbalance in Gunas.
Still I haven't denied same bloodline in Varnas and also can be said to not do intermarriage. But pt is can blood determine Varna? No
Message from Sanskritmemes
"How does Varna flow in Lineage? I Will answer the last time and debunk all the neo wannabe Trads. This concept which I speak of is a Universally accepted one and is unquestioned by any traditional school.
Jati means that which percieved through Aakriti, like Treeness (jati) in trees can be percieved through Akriti (figure of tree like branches leaves etc). But Brahmanas and Shudras have same External Aakriti, so in a group of humans we can't determine who's brahmana and who isn't. The internal characteristics can be Genes, blood, Dna etc if are to be considered Aakriti in case of Brahmanhood or Kshatriyahood, Still there is no guarantee that all these even though are present in a body, would 100% determine Varna.
Note= I dont deny common genetics and bloodline to be found in Same Varnas but i deny that they can be used as valid parameters to determine Varna or the flow of Varna to the next generation. Different methods according to different Yugas determine Varna, and its flow and its only the Shaastras which decide. It defies all logic.
The reason is simple, there is ban on Intervarna marriages today, but in Previous Yugas Brahmanas did marry a lower Varna woman 2nd or 3rd time. When it was allowed, the progeny obtained the paternal Varna. Now there is Bloodmixing and Genemixing as well, but he got the Varna of Father. And was eligible for Shraaddhas (ancestral rites) also. Now let's see if a Brahmana born of Pure Brahmana Parents with no intermixing in Clan, will he obtain Brahmanhood at birth for guarantee? Not necessarily.
If the parent has not had an Upanayana (janeu), then the Son would be a Vraatya. If such Upanayana stops till more than 6-7 generations in Lineage, than the Progeny would be Shudra. Manu 10.43 shows how Kshatriya families due to lack of rituals became Shudras in due course of time.
Today, all kinds of Intervarna are banned, and if you say the reason is Genes etc, why where they allowed previously? Varna passes down only through Samskaras. Hence its proved Varna isn't a physical quality nor can it be determined through anything like Genes or Dna. The flow of Varna is through Unbroken Samskaras in a Lineage. If I do not undergoe Upanayana at time, and do not have Prayashchitta, my son won't inherit Brahmanhood at birth. The Garbhadhana also is a Samskara which depends on the Parents' Samskaras. And through these Samskaras the born child can be considered as a Brahmana.
You can ask me Why Lineage is Important, but not Bloodline. Because Lineage just means Parampara, an Unbroken Chain. Lineage hence doesnt qualify as Bloodline. Unbroken Chain of what? = Samskaras. भागवत 7.11.13 says संस्कारा यदविच्छिन्ना स द्विजः (where Samskaras are unbroken, he is a Dvija). So birth is indeed important, but in such a family, where all generations have undergone Upanayana/Janeu. Even if one generation has not done Janeu, the child will be born a Vraatya (Potential Brahmana). Even Janma requires Garbhadhana Samskara. Mating too has proper procedure to follow.
Aapastamba hence says अथयस्य प्रापितामह आदि नानुस्मार्यत।
उपनयनम् ते शमशानसमस्तुताः।। "And those who's ancestors' intiation/janeu is not conducted, those offsprings are equivalent to graveyards" . Bhagavata Purana says that Uninitiated Dvijas or Dvijabandhus cannot even Hear Vedas = स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां त्रयी न श्रुतिगोचरा, Skanda Purana says जन्मना जायते शूद्रः = Everyone is born equivalent to a Shudra (ie unauthorized in Vedas). This proves Birth has no Purity, Purity is only through Samskaras.
Gautama gave birth to a Shudra, whom he converted to a Brahmana by his Tapas, and his Clan is the Gautama Gotra of Brahmanas, having blood and genes of a Shudra. In Mahabharata, Brahmanas have said to have Niyoga with Kshatriya women and produce Kshatriyas, these should ideally be Sankaras due to mixture, but are not. They get Kshatriya and Brahmana both genes/blood still are Pure Kshatriyas. As Varna isn't Phsyical or obtained through Physical Means but Divine Samskaras. संस्काराद् द्विज उच्यते (Skanda Purana, Atri