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Ram. Teachings and Sermons of Swami RamsukhdasJi. राम। स्वामी रामसुखदासजी के प्रवचन और सिद्धांत।

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स्वामी रामसुखदासजी Swami RamsukhdasJi

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स्वामी रामसुखदासजी Swami RamsukhdasJi

राम ! राम !! राम !!! राम !!!!

जो स्वार्थी है, अपना लाभ देखता है, उसके द्वारा कल्याण नहीं होता । *काम, क्रोध रूपी मल से भरे झाड़ू से कूड़ा कचरा साफ किया जाए (समाज सुधार का काम किया जाए) तो और गंदगी फैल जाएगी ।* उससे तो कूड़ा कचरा अच्छा था ।

*परम श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज जी द्वारा विरचित ग्रंथ गीता प्रकाशन गोरखपुर से प्रकाशित स्वाति की बूंदें पृष्ठ संख्या ८*

*राम ! राम !! राम !!! राम !!!!*

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राम ! राम !! राम !!! राम !!!!

बीज थोड़े होते हैं, पर खेती ज्यादा होती है । ऐसे ही हम दूसरे को दुःख देंगे तो वह हमें कई गुना अधिक होकर मिलेगा ।

*परम श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज ज द्वारा विरचित ग्रंथ स्वाति की बूंदें पृष्ठ संख्या ५१*

*राम ! राम !! राम !!! राम !!!!*

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राम ! राम !! राम !!! राम !!!!

एक आप हैं और एक आपका स्वभाव है । सत्संग आदि करने से स्वभाव में फर्क पड़ता है, तत्त्व में कोई फर्क नहीं पड़ता ।

*परम श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज ज द्वारा विरचित ग्रंथ स्वाति की बूंदें पृष्ठ संख्या ५१*

*राम ! राम !! राम !!! राम !!!!*

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*ॐ श्री परमात्मने नमः*
 
*_प्रश्‍न‒रसका अनुभव क्यों नहीं होता ?_*
 
*स्वामीजी‒* रसकी चाहना होनेसे ही रसका अनुभव नहीं हो रहा है । अतः न रसकी चाहना करे, न ज्ञानकी चाहना करे, न मुक्तिकी चाहना करे । कोई चाहना करे ही नहीं ।
 
मुक्तिके लिये मुक्तिकी चाहना नहीं करनी है, प्रत्युत संसारकी चाहना मिटानेके लिये मुक्तिकी चाहना करनी है; जैसे‒काँटा निकालनेके लिये काँटेकी जरूरत है । निषेध (संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद) करनेपर विधि स्वतः आ जायगी, उसकी चाहना करनी नहीं पड़ेगी । अतः चाहनामात्रका त्याग करना है । चाहना करते ही प्रकृतिके साथ सम्बन्ध हो गया ! मुक्तिकी चाहना करना मुक्तिसे दूर होना है । अतः चाहना न करके ‘चुप’ होना है । परमात्माकी प्राप्‍ति भी स्वतः है और संसारकी निवृत्ति भी स्वतः है, अतः ‘चुप’ हो जाओ ।
 
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*श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज*
_(‘रहस्यमयी वार्ता’ पुस्तकसे)_
 
*VISIT WEBSITE*
 
*www.swamiramsukhdasji.net*
 
*BLOG*
 
*http://satcharcha.blogspot.com*
 
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*ॐ श्री परमात्मने नमः*
 
*_प्रश्‍न‒आजकल मन्त्रोंकी सिद्धि न होनेमें क्या कारण है ?_*
 
*स्वामीजी‒* मनमें परस्‍त्रीका चिन्तन करनेसे मनमें वैसी शक्ति नहीं रहती । इसलिये कहा है‒
 
जिह्वा दग्धा परान्नेन    करौ दग्धौ प्रतिग्रहात् ।
मनो दग्ध परस्‍त्रीभिः कार्यसिद्धिः कथं भवेत् ॥
(कुलार्णव॰ १५ । ७७)
 
‘दूसरेका अन्‍न खानेसे जिसकी जीभ जल गयी है, दान लेनेसे जिसके हाथ जल गये हैं और दूसरेकी स्‍त्रीका चिन्तन करनेसे जिसका मन जल गया है, उसे सिद्धि कैसे मिल सकती है ?’
 
दूसरी बात, आजकल तन्त्रविद्याके जानकार गुरु भी प्रत्यक्षमें नहीं मिलते । उत्तराखण्डमें सैकड़ों वर्षोंकी आयुवाले ऐसे महापुरुष विद्यमान हैं । परन्तु अपनी सच्‍ची, तीव्र लगन हो तो वे स्वयं आकर मिलते हैं ।
 
*_प्रश्‍न‒किसी मन्त्र, तन्त्र अथवा यन्त्रका प्रभाव कबतक रहता है ?_*
 
*स्वामीजी‒* यदि अनुष्ठानकर्ता संयमी है, श्रेष्ठ आचरण तथा भाववाला है तो उसके द्वारा प्रयुक्त किये गये, बनाये गये यन्त्र आदि अधिक समयतक प्रभावशाली रहते हैं ।
 
*_प्रश्‍न‒सन्तोषी माताके प्रचारमें क्या वास्तविकता है ?_*
 
*स्वामीजी‒* बिल्कुल शास्‍त्रविरुद्ध, मनगढ़ंत है ! मनगढ़ंत देवी-देवताओंको नहीं मानना चाहिये ।
 
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*श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज*
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*ॐ श्री परमात्मने नमः*
 
*_प्रश्‍न‒मनुष्यको अपने लक्ष्यकी पहचान कैसे हो ?_*
 
*स्वामीजी‒* मनुष्य या तो स्वयं विचार करके अपना लक्ष्य पहचाने, या शास्‍त्र तथा सन्तोंके वचनोंपर विश्‍वास करके अपना लक्ष्य पहचाने । विचार करें कि हम चाहते क्या हैं ? हम ऐसा पूर्ण सुख चाहते हैं, जो सदा बना रहे । जैसे भूख लगती है तो इससे सिद्ध होता है कि ऐसी कोई वस्तु अवश्य है, जिससे भूख मिटती है । ऐसे ही पूर्ण सुखकी इच्छा होती है तो ऐसा सुख अवश्य है, जिससे सदाके लिये सुख मिल जाता है । नाशवान्‌ सुखका त्याग करनेसे अविनाशी सुखकी प्राप्‍ति हो जाती है । ऐसा निश्‍चय कर लो कि हमें नाशवान्‌ सुख नहीं लेना है ।
 
अपने लक्ष्यको पहचान लें तो फिर दूसरे लक्ष्यकी तरफ कभी ध्यान नहीं जायगा । यदि दूसरी तरफ ध्यान जाता है तो लक्ष्यको पहचाना ही नहीं !
 
*_प्रश्‍न‒जीवका उद्देश्य अपना कल्याण करना है, फिर तैत्तिरीयोनिषद्‌में पहले ‘आचार्यदेवो भव’ न कहकर ‘मातृदेवो भव’ क्यों कहा ?_*
 
*स्वामीजी‒* पहला गुरु माँ है । मातामें आदरभाव होगा तो आचार्यमें स्वतः आदरभाव हो जायगा । परन्तु बालक माँका उतना आदर नहीं करता, तभी ‘मातृदेवो भव’ पहले कहा ।
 
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*श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज*
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*ॐ श्री परमात्मने नमः*
 
*_प्रश्‍न‒आपने कहा है कि परमात्मामें जगत्‌को देखना नास्तिकता है । यह कैसे ? क्योंकि यह तो एक साधन है‒‘सर्वं च मयि पश्यति’ (गीता ६ । ३०); ‘अथो मयि’ (गीता ४ । ३५) ।_*
 
*स्वामीजी‒* ऐसा कहनेका तात्पर्य है‒जो परमात्माकी जगह केवल जगत्‌को ही देखता है अर्थात् परमात्माको न मानकर केवल जगत्‌को ही सच्‍चा मानता है‒‘जगदाहुरनीश्‍वरम्’ (गीता १६ । ८) ।
 
*_प्रश्‍न‒आपने कहा कि नास्तिक भी यदि ईमानदार हो तो उसका भी उद्धार हो सकता है, तो नास्तिकमें ईमानदारी क्या है ?_*
 
*स्वामीजी‒* ईश्‍वरको देखूँगा, तभी मानूँगा‒यह उसकी ईमानदारी है ।
 
*_प्रश्‍न‒बौद्ध तथा जैन दर्शनको नास्तिक क्यों कहा गया है ? वे आत्माको मानते हैं । आत्मा और परमात्माकी सत्ता तो एक ही है !_*
 
*स्वामीजी‒* वे ईश्‍वरका खण्डन करके आत्माका आग्रह रखते हैं । इस आग्रहके कारण ही बाधा है । आग्रह न हो तो सब ठीक है । कारण कि आग्रहसे अहम् रहता है, जिससे मतभेद पैदा होते ।
 
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॥राम॥
भागवत एकादशी व्रत व गीता-पाठ

वि०सं०२०८१ ज्येष्ठ कृष्ण १२
सोमवार 3.6.24

प्रातः 8:30 से 10:30
गीता सामूहिक पाठ

पाठमें शामिल होनेके लिये हार्दिक निवेदन।
Join Zoom Meeting
https://us06web.zoom.us/j/84470962486?pwd=MjRnRHViT01Dd3UwaFBlQUgzdTM5QT09
Meeting ID: 844 7096 2486
Passcode: ramram

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*ॐ श्री परमात्मने नमः*
 
*_प्रश्‍न‒स्वामीजी, आपने कहा कि अधूरी जानकारीको पूरा मान लेनेसे नास्तिकता आती है, कैसे ?_*
 
*स्वामीजी‒* जितना जान लिया, उसीको पूर्ण मान लेनेसे और जाननेकी इच्छा नहीं होगी तथा शास्‍त्रों आदिसे जो जानेगा, उसको मानेगा नहीं कि यह सब गलत है, जो मैं जानता हूँ, वही ठीक है‒यही नास्तिकताका आना है । अभिमान भी अधूरी जानकारीमें ही आता है । परमात्मप्राप्‍तिमें जितनी भी बाधाएँ हैं, उन सब बाधाओंमें अभिमान सबसे अधिक बाधक है !
 
*_प्रश्‍न‒आप कहते हैं कि विश्‍वास भगवान्‌से माँगो, फिर यह क्यों कहा जाता है कि भगवान्‌पर विश्‍वास करो ?_*
 
*स्वामीजी‒* जितना हम कर सकते हैं, उतना हमारेपर करनेकी जिम्मेवारी है । जो हम नहीं कर सकते, वह भगवान् करते हैं । हमने नाशवान्‌पर विश्‍वास कर लिया, इसलिये अविनाशीपर विश्‍वास करनेकी हमारेपर जिम्मेवारी है । भगवान्‌के सिवाय कुछ नहीं है‒यह विश्‍वास फिर भगवान् देते हैं ।
 
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राम ! राम !! राम !!! राम !!!!

*पता लगते ही पाप करना छोड़ दो तो पहले किए पाप भी माफ हो जाएंगे ।*

*परम श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज ज द्वारा विरचित ग्रंथ स्वाति की बूंदें पृष्ठ संख्या ५१*

*राम ! राम !! राम !!! राम !!!!*

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राम ! राम !! राम !!! राम !!!!

भगवान् के साथ मनुष्य ही खेल सकते हैं । इसलिए भगवान् मनुष्य को सखा ही बनाते हैं, चेला नहीं बनाते । मनुष्य को भगवान् ने अपने लिए बनाया है । यह विशेषता हमारी नहीं है, प्रत्युत भगवत् कृपा की है।

*परम श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज ज द्वारा विरचित ग्रंथ स्वाति की बूंदें पृष्ठ संख्या ५१*

*राम ! राम !! राम !!! राम !!!!*

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