*संतवाणी*
*श्रद्धेय स्वामीजी श्रीशरणानन्दजी महाराज*
_(‘प्रश्नोत्तरी-०२’ पुस्तकसे)_
*_प्रश्न‒लोभ और मोहका नाश कैसे हो ?_*
*स्वामीजी‒* मिले हुएको अपना और अपने लिए न माननेसे लोभ और मोहका नाश होता है ।
*_प्रश्न‒सुख और रसमें क्या अन्तर है ?_*
*स्वामीजी‒* सुख हमेशा कम होता जाता है और रस उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है ।
*_प्रश्न‒अविनाशी जीवनकी लालसा कैसे जगे ?_*
*स्वामीजी‒* विनाशी जीवनकी वास्तविकताका बोध होनेपर अविनाशी जीवनकी लालसा स्वतः जगेगी ।
*_प्रश्न‒पूर्ण विकासका क्या अर्थ है ?_*
*स्वामीजी‒* हम संसार और परमात्माके काम आ जायें और बदलेमें दोनोंसे कुछ न चाहें ।
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राम ! राम !! राम !!! राम !!!!
जब संसार में आए थे, तब पास में कुछ नहीं था और जायेंगे तो कुछ भी साथ चलेगा नहीं । अतः सेवा करने से अपना कुछ भी खर्च नहीं होता और अपना कल्याण कर सकते हैं मुफ्त में ?
*परम श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज जी द्वारा विरचित ग्रंथ गीता प्रकाशन गोरखपुर से प्रकाशित स्वाति की बूंदें पृष्ठ संख्या १५*
*राम ! राम !! राम !!! राम !!!!*
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*ॐ श्री परमात्मने नमः*
*_प्रश्न‒‘तत्तेऽनुकम्पां सुसमीक्षमाणः’ (श्रीमद्भा॰ १० । १४ । ८)‒भगवान्की कृपाकी ओर भलीभाँति देखते रहनेका तात्पर्य क्या है ?_*
*स्वामीजी‒* मेरेपर कृपा है‒यह भाव हर समय रहना चाहिये । कमी हमारे भावकी है । हमारा भाव बन जाय तो भगवान्की शक्ति थोड़ी नहीं है । अपने ‘उद्योग’ में तो कमी न रखे, पर ‘होने’ में कृपा समझे । कृपाको देखनेसे आभिमान नहीं आयेगा ।
*_प्रश्न‒स्वामीजी, आपने कहा कि भगवान्की कृपासे ही काम होता है, तो वह कृपा कब होगी ?_*
*स्वामीजी‒* कृपा कब होती है, कैसे होती है‒यह हम जानते नहीं ! बैठे-बैठे अचानक हो जाती है ! कारण हम जानते नहीं । कोई चिन्तन बार-बार होता है और हम जानते हैं कि यह ठीक नहीं है, फिर भी मन उसको छोड़ता नहीं । पर अचानक वह मिट जाता है ! यह कृपा ही तो है ! सन्त-कृपा भी ऐसे ही है । कब हो जाय, पता नहीं ! यही मालूम होता है कि ऐसा कोई समय आता है, जिसमें कृपा होती है !
खास बात तो मेरेको यह जँचती है‒‘हरि से लगे रहो भाई, तेरी बिगड़ी बात बन जाई ।’ यही बात समझमें आती है ! ‘भजत कृपा करिहहिं रघुराई’ (मानस, बाल॰ २०० । ३) ।
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*श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज*
_(‘रहस्यमयी वार्ता’ पुस्तकसे)_
*VISIT WEBSITE*
*www.swamiramsukhdasji.net*
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*http://satcharcha.blogspot.com*
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राम।।🍁
🍁 *विचार संजीवनी* 🍁
*..मेरे समान आप बन सकते हो..*
*जब हृदयमें वैराग्य होता है, भगवान्का प्रेम होता है, तब यह संसार कुछ कीमती नहीं दीखता।* एक सन्त बैठे थे। किसीने जाकर कहा कि बाबाजी, अकेले ही बैठे हो ! सन्तने कहा कि मैं तो अकेला नहीं था, तू आया तो अकेला हो गया ! भगवान् हमारे पास थे। तुम आये तो भगवान् नहीं रहे। तुम्हारे आनेसे अकेले हुए। इस बातको दूसरा क्या समझे ? समझ सकता ही नहीं।
आपके समान मैं नहीं बन सकता, पर मेरे समान आप बन सकते हो। मैं आपके समान इतनी चीजें कहाँसे इकट्ठी करूँ ? पर आप सब कुछ छोड़ दो तो हमारे समान बन गये ! हमारे समान बननेमें क्या जोर आया ? कई वर्ष पहले मैं वृन्दावनमें रहा। कोई पूछनेवाला नहीं, कोई व्याख्यान नहीं! वहाँ एक साधुने मेरेसे कहा कि आपका अकेलेमें मन कैसे लगता है? मैंने कहा कि मेरा तो मन लगता है! एकान्तमें बड़ा आनन्द होता है! बुखारमें भी आनन्द आता है, मस्ती आती है! बुखारमें बुद्धिका विकास होता है। जितनी प्रतिकूलता होती है, उतना आनन्द आता है। थोड़ा-सा वैराग्य हो, थोड़ी-सी भगवान् में रुचि हो, भगवान् थोड़े अच्छे लगें तो आप देखो, आनन्द-ही-आनन्द होता है! समझमें आये या न आये, पर बात ऐसी है! जो कामनाओंमें फँसे हुए हैं, वे इस बातको समझ नहीं सकते।
*राम !....................राम!!....................राम !!!*
परम् श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदास जी महाराज, *नये रास्ते, नयी दिशाएँ* पृ०-८९
राम ! राम !! राम !!! राम !!!!
दुष्ट को दुष्ट मानना दुष्टता है। " *सब जग ईश्वर रूप है"* विचार करें, जिसे हम दुष्ट कहते हैं, क्या वह सब समय दुष्ट है ? क्या वह सर्वथा दुष्ट है ? क्या वह सबके लिए दुष्ट है ? जिसमें सर्वथा दुष्टता हो ऐसा कोई हो ही नहीं सकता । सर्वथा दुष्ट होने की सामर्थ्य किसी में नहीं ।
*परम श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज जी द्वारा विरचित ग्रंथ गीता प्रकाशन गोरखपुर से प्रकाशित स्वाति की बूंदें पृष्ठ संख्या १३*
*राम ! राम !! राम !!! राम !!!!*
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राम ! राम !! राम !!! राम !!!!
शरीर संसार की वस्तु है, व्यक्तिगत वस्तु नहीं है । *शरीर को संसार से अलग (व्यक्तिगत) मानकर शरीर को सुख देना चाहते हैं -यह गलती है ।* यदि शरीर आपका है तो फिर उसे बीमार क्यों होने देते हो ? कमजोर, बूढ़ा क्यों होने देते हो ? आंखें आपकी हैं तो फिर चश्मा क्यों लगाते हो ?
*परम श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज जी द्वारा विरचित ग्रंथ गीता प्रकाशन गोरखपुर से प्रकाशित स्वाति की बूंदें पृष्ठ संख्या १४*
*राम ! राम !! राम !!! राम !!!!*
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