राम।।🍁
*..बातें कहने-सुनने से काम नहीं होगा..*✨
*श्रोता--* संसारमें भगवान्को कैसे देखा जाय ?
*स्वामीजी--* पहले आप इस बातको सोचें कि हमें जीवनमें क्या करना है? हमें परमात्माकी प्राप्ति ही करनी है, ऐसा विचार होनेपर ही यह बात ठीक समझमें आयेगी। जबतक अपना विचार परमात्मप्राप्तिका नहीं होगा, तबतक बातें कहने-सुननेसे काम नहीं होगा, कोई उपाय काम नहीं देगा।
*परमात्मप्राप्तिकी जोरदार अभिलाषा होनेपर ही उपाय काम देते हैं, नहीं तो बढ़िया-से-बढ़िया उपाय भी काम नहीं देगा।* विचार करके देखो, भगवान् के कई अवतार हो गये, कई अच्छे-अच्छे सन्त-महात्मा हो गये, पर अभीतक हमारा कल्याण नहीं हुआ ! इसका कारण यह नहीं है कि भगवान्के अवतारोंमें अथवा सन्त-महात्माओंमें कोई कमी थी। वास्तवमें हमारी ही इच्छा जोरदार नहीं थी। यह मूल बात है। आदमी बिना भूखके भोजन नहीं कर सकता। भोजन बहुत बढ़िया हो, पर भूख नहीं हो तो उसका क्या करें !
*राम !....................राम!!....................राम !!!*
परम् श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदास जी महाराज, *नये रास्ते, नयी दिशाएँ* पृ०-१०३
।। श्रीहरि ।।
किसी सन्त के पास जाओ तो कम-से-कम उनके मन के विरुद्ध काम मत करो । इससे कभी लाभ नहीं होगा, उल्टे हानि होगी । लाभ सन्त की प्रसन्नता से होता है, उनके मन के विरुद्ध काम करने से नहीं । उनके मन के विरूद्ध काम करेंगे तो वह अपराध होगा, जिसका दण्ड भोगना पड़ेगा । उनका कहना नहीं मानो तो कम-से-कम उनके विरूद्ध तो मत चलो । हम सन्त से जबर्दस्ती लाभ नहीं ले सकते, प्रत्युत उनकी प्रसन्नता से लाभ ले सकते हैं । लाभ सन्त की प्रसन्नता में है, उनके चरणों में नहीं ।
'सीमा के भीतर असीम प्रकाश' पुस्तक से, पृष्ठ-संख्या- ८६, गीता प्रकाशन, गोरखपुर
परम श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज
*ॐ श्री परमात्मने नमः*
*_प्रश्न‒गीतामें आया है‒‘स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्’ (गीता २ । ४०) । अगर थोड़ी भी समता, निष्कामभाव कल्याण कर दे तो फिर पूरेकी क्या जरूरत है ?_*
*स्वामीजी‒* इसमें थोड़े-ज्यादाकी बात नहीं है । समताके टुकड़े नहीं होते । इसका तात्पर्य है कि जितनी समता आ गयी, उतनी समता स्थिर रहेगी, उसका कल्याणके सिवाय और कोई फल नहीं होगा । उस थोडी समताका भी नाश नहीं होगा ।
*_प्रश्न‒गीतामें आया है‒‘स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्’ (गीता २ । ४०) । यदि स्वल्प होते हुए भी समता महान् है, पूरी-की-पूरी है, तो फिर तत्काल कल्याण हो जाना चाहिये ? थोड़ा-सा भी निष्कामभाव आते ही कल्याण हो जाना चाहिये ? अगर देरी लगती है तो इससे ऐसा दीखता है कि तत्काल कल्याण न होकर क्रमसे कल्याण होता है ?_*
*स्वामीजी‒* ‘महतो भयात्’ को अर्थात् असत्को सत्ता देनेसे ही देरी लगती है‒‘क्रममुक्ति’ होती है । यदि सर्वथा सत्ता न दें तो तत्काल कल्याण है‒‘सद्योमुक्ति’ है ।
*_प्रश्न‒दियासलाई छोटी होती है । जब वह रुईको जलाती है, तब रुई खुद जलकर जलनेमें सहायता करती है‒इसका तात्पर्य ?_*
*स्वामीजी‒* क्रिया भले ही छोटी हो, पर निष्कामभाव पूरा होना चाहिये, तभी ‘स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्’ होगा । जैसे रुई ही अग्नि बन जाती है, ऐसे ही तत्त्वज्ञान होनेके बाद निष्ठा अपने-आप होती है, उसके लिये प्रयत्न नहीं करना पड़ता ।
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*श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज*
_(‘रहस्यमयी वार्ता’ पुस्तकसे)_
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॥राम॥
योगिनी एकादशी व्रत व गीता-पाठ
आषाढ़ कृ० ११ सं.२०८१(मंगल 2 जुलाई 24)
प्रातः 7:30 से
गीता सामूहिक पाठ
पाठमें शामिल होनेके लिये हार्दिक निवेदन।
Join Zoom Meeting
https://us06web.zoom.us/j/84470962486?pwd=MjRnRHViT01Dd3UwaFBlQUgzdTM5QT09
Meeting ID: 844 7096 2486
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*ॐ श्री परमात्मने नमः*
*_प्रश्न‒कौरवसेनामें तो कई प्रकारके बाजे बजे (गीता १ । १३ ), पर पाण्डवसेनामें केवल शंख ही बजे (गीता १ । १४‒१८) । इसका कारण क्या था ?_*
*स्वामीजी‒* वहाँ (गीता १ । १३ में) सेनाका वर्णन होनेसे कई प्रकारके बाजे बजनेकी बात आयी है । परन्तु यहाँ (गीता १ । १४‒१८ में) सेनाका वर्णन न होकर विशिष्ट व्यक्तियोंका वर्णन है । अतः पाण्डवसेनाके विशिष्ट व्यक्तियोंने कौन-कौनसे शंख बजाये‒इसका वर्णन किया गया है ।
*_प्रश्न‒गीतामें धृतराष्ट्रके लिये ‘परन्तप’ (शत्रुको तपानेवाला) कहनेका तात्पर्य क्या है (गीता २ । ९) ? उनके शत्रु तो पाण्डव थे !_*
*स्वामीजी‒* धृतराष्ट्रको ‘परन्तप’ इसलिये कहा कि वे शत्रुओंको तपाना, दुःख देना चाहते थे, और उनको (पाण्डवोंको) दुःख देते भी थे । तभी उन्होंने लोहेसे बनी भीमकी मूर्तिको मसल दिया ! ‘परन्तप’ शब्दका भाव है‒शूरवीर ।
*_प्रश्न‒गीतामें एक जगह कहा है कि अपरा प्रकृतिकी सत्ता ही नहीं है‒‘नासतो विद्यते भावः’ (गीता २ । १६ ), और दूसरी जगह कहा है कि वह अव्यय है‒‘अव्ययम्’ (गीता १५ । १) । इसका तात्पर्य क्या हुआ ?_*
*स्वामीजी‒* सत्ता ही नहीं है‒ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि प्रकृतिकी स्वतन्त्र (भगवान्से अलग) सत्ता नहीं है, और ‘अव्यय’ कहनेका तात्पर्य है कि वह भगवत्स्वरूप है । जैसे शरीरसे नख-केश पैदा होते हैं तो वे शरीररूप ही हैं, पर शरीरसे अलग उनकी सत्ता नहीं है ।
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*श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज*
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॥राम॥
योगिनी एकादशी व्रत व गीता-पाठ
आषाढ शु०११ सं.२०८१(मंगल 2 जुलाई 24)
प्रातः 7:30 से
गीता सामूहिक पाठ
पाठमें शामिल होनेके लिये हार्दिक निवेदन।
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।। श्रीहरिः।।
वर्तमान समय में साधन-भजन करने के लिये लड़कियों को विवाह न करने की सम्मति मैं नहीं देता हूँ । वे अविवाहित रहकर आध्यात्मिक उन्नति कर सकें-ऐसा आजकल होना कठिन है । इसलिये उन्हें घर में रहते हुए ही साधन करना चाहिये । घर से बाहर जाकर वे ठीक कर लेंगी-यह असम्भव-जैसी बात है । वे माँ-बाप के पास में, भाई के पास में उनकी देख-रेख में रहें और भजन करें तो कर सकती हैं ।
'एक संत की अमूल्य शिक्षा' ( क्या करें, क्या न करें ? ) पुस्तक से, पृष्ठ-संख्या- 46, गीता प्रकाशन, गोरखपुर
----परम श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज