*ॐ श्री परमात्मने नमः*
*_प्रश्न‒जो संसारको जानता है, वह वेदवित् है‒‘यस्तं वेद स वेदवित्’ (गीता १५ । १), तो वह क्या जानता है ?_*
*स्वामीजी‒* यह जानता है कि संसार नहीं है, परमात्मा है‒‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २ । १६) । वेदवित्, तत्त्वदर्शी तथा सर्ववित्‒तीनों एक ही हैं ।
*_प्रश्न‒गीतामें ‘अध्यात्मनित्याः’ (गीता १५ । ५)‒यह पद तो ज्ञानमार्गका है और ‘तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये’ (गीता १५ । ४)‒यह पद भक्तिमार्गका है; अतः दोनोंकी संगति ठीक नहीं बैठती कि भक्तिके वर्णनमें ज्ञानकी बात कैसे ?_*
*स्वामीजी‒* इसका समाधान ऐसे कर सकते हैं कि समग्रमें सब आ जाते हैं !
*_प्रश्न‒‘मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति’ (गीता १५ । ७)‒इसमें किसका आकर्षण है ?_*
*स्वामीजी‒* मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ ही खिंचती हैं । स्वयंमें आकर्षण है ही नहीं । परन्तु मोहके कारण स्वयं खिंचता दीखता है ।
*_प्रश्न‒गीताके सातवें अध्यायमें तो अपरा प्रकृतिको भगवान्से अभिन्न बताया है और पन्द्रहवें अध्यायमें भगवान्को अपरा प्रकृतिसे अतीत बताया है‒इसका क्या तात्पर्य है ?_*
*स्वामीजी‒* जबतक हमारी दृष्टिमें संसारकी सत्ता है, तबतक भगवान् अपरा प्रकृति (क्षर)-से अतीत हैं, अन्यथा दोनों एक ही हैं । स्वतन्त्र सत्ता भगवान्की ही है । अपनी स्वतन्त्र सत्ता माननेसे साधक ‘ज्ञानी’ हो जाता है और भगवान्की स्वतन्त्र सत्ता माननेसे ‘भक्त’ हो जाता है ।
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*श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज*
_(‘रहस्यमयी वार्ता’ पुस्तकसे)_
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॥राम॥
देवशयनी एकादशी गीता-पाठ
आषाढ़ शुक्ल ११ सं.२०८१( बुधवार 17 जुलाई 24)
प्रातः 7:00 से
गीता सामूहिक पाठ
पाठमें शामिल होनेके लिये हार्दिक निवेदन।
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Meeting ID: 844 7096 2486
Passcode: ramram
*ॐ श्री परमात्मने नमः*
*_प्रश्न‒भगवान् कहते हैं कि मैंने योगमें स्थित होकर गीता कही थी‒‘परं हि ब्रह्म कथितं योगयुक्तेन तन्मया’ (महाभारत, आश्व॰ १६ । १३) । योगमें स्थित होनेका तात्पर्य क्या है ?_*
*स्वामीजी‒* योगमें तो भगवान् निरन्तर ही स्थित रहते हैं । यहाँ योगमें स्थित होनेका तात्पर्य है कि सुननेवालेका हित किसमें है; उसके लिये क्या कहना चाहिये; जो मैं कहूँगा, उसका भविष्यमें क्या असर पड़ेगा‒इस प्रकार श्रोताके हितमें स्थित होकर (विशेष सावधानीपूर्वक) गीता कही है ।
यहाँ श्रोताके भावकी भी मुख्यता है । अर्जुनका विशेष भाव होनेसे ही भगवान्ने गीता कही । अन्य समय वैसा भाव न होनेसे नहीं कही ।
*_प्रश्न‒भगवान्ने भगवद्गीता गद्यमें कही, जिसे महर्षि वेदव्यासजीने बादमें श्लोकबद्ध कर दिया, फिर इसे ‘गीता’ (गाया हुआ गीत) क्यों कहते हैं ?_*
*स्वामीजी‒* जब मनुष्य मस्ती, आनन्दमें होता है, तब उसके मुखसे स्वतः गीत निकलता है । भगवान् हर समय मस्तीमें रहते हैं; अतः उनके वचन ‘गीत’ होते हैं ।
*_प्रश्न‒स्वामीजी, आपने कहा है कि गीताको जाननेसे जो विषय गीतामें नहीं आया है, उसका भी ज्ञान हो जायगा । कैसे ?_*
*स्वामीजी‒* गीताके अनुसार अपने स्वार्थका त्याग (निष्कामभाव) और दूसरेके हितका भाव हो जायगा तो उसके भीतर स्वतः बात पैदा होगी । तभी मनुस्मृतिमें कहा है कि सभी देशोंके मनुष्य भारतमें उत्पन्न मनीषियोंसे अपने-अपने कर्तव्यकी शिक्षा ग्रहण करें‒
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः ।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन्पृथिव्यां सर्वमानवाः ॥
(मनुस्मृति २ । २०)
*_प्रश्न‒भागवत-माहात्म्यमें आया है कि भक्तिके दो पुत्र‒ज्ञान और वैराग्य अचेत हुए पड़े थे । उन्हें बार-बार गीतापाठ सुनानेपर भी होश नहीं आया । ऐसा कहनेका क्या तात्पर्य है ?_*
*स्वामीजी‒* इसका तात्पर्य गीताकी निन्दा करनेमें नहीं है, प्रत्युत भागवतमें प्रवृत्ति करानेमें है । प्रत्येक ग्रन्थमें यह बात है कि एककी महिमा बतायी जाती है और दूसरोंको कमजोर बताया जाता है । वास्तवमें साधक किसी एक तत्त्वमें गहरा उतर जाय तो उसीसे सब कुछ मिल जायगा ।
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*श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज*
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राम ! राम !! राम !!! राम !!!!
पहले "मेरा कुछ नहीं है", फिर "मुझे कुछ नहीं चाहिए", फिर "मैं कुछ नहीं हूं", फिर तत्व की प्राप्ति - यह साधन का क्रम है ।
*परम श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज जी द्वारा विरचित ग्रंथ गीता प्रकाशन गोरखपुर से प्रकाशित स्वाति की बूंदें पृष्ठ संख्या १८*
*राम ! राम !! राम !!! राम !!!!*
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राम ! राम !! राम !!! राम !!!!
*"मैं" और "मेरा" कुछ नहीं है, सब "तू" और "तेरा" है ।*
*परम श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज जी द्वारा विरचित ग्रंथ गीता प्रकाशन गोरखपुर से प्रकाशित स्वाति की बूंदें पृष्ठ संख्या १७*
*राम ! राम !! राम !!! राम !!!!*
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