*ॐ श्री परमात्मने नमः*
*_प्रश्न‒शास्त्रमें आया है‒‘तस्य पुत्रा दायमुपयन्ति सुहृदः साधुकृत्यां द्विषन्तः पापकृत्याम्’ अर्थात् उस तत्त्वज्ञका धन पुत्र, पुण्यकर्म सुहृद और पापकर्म शत्रु ले लेते हैं । इसका तात्पर्य क्या है ?_*
*स्वामीजी‒* यह आधुनिक वेदान्तमें आता है, पर यह ठीक नहीं है । हमें यह बढ़िया नहीं लगा । ग्रन्थोंमें कई बातें बादमें मिलायी गयी हैं ।
*_प्रश्न‒मुक्त होनेके बाद ‘मैं भगवान्का हूँ’‒यह स्वीकृति करनी पड़ती है क्या ?_*
*स्वामीजी‒* भक्तिके संस्कार हों तो मुक्त होनेके बाद ‘मैं भगवान्का हूँ’‒यह स्वीकृति करनी नहीं पड़ती, प्रत्युत स्वतः भक्ति (प्रेम)-की प्राप्ति होती है ।
*_प्रश्न‒फिर आप मुक्त होनेके बाद स्वीकृतिकी बात क्यों कहते हैं ?_*
*स्वामीजी‒* उनके लिये कहता हूँ, जो ईश्वरको नहीं मानते, जो भगवान्की अस्वीकृति करते हैं ।
*_प्रश्न‒ऐसा सुना है कि जीवन्मुक्तको स्वप्न नहीं आता ? इस विषयमें आपका क्या विचार है ?_*
*स्वामीजी‒* इस बातको मैं नहीं मानता । सेठजी (श्रीजयदयालजी गोयन्दका)‒को स्वप्न आता था । जीवन्मुक्तमें निरर्थक संकल्प, वृथा चिन्तन नहीं होता । वस्तवमें स्वप्न आना या न आना‒ये बातें असत्में हैं, चेतनमें नहीं । मनुष्य जीवन्मुक्त होता है तो उसका शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । स्वप्न सूक्ष्मशरीरमें होते हैं ।
*_प्रश्न‒तत्त्वज्ञान होनेपर संचित आदि सब कर्म विलीन हो जाते हैं, फिर संचितसे उत्पन्न होनेवाला स्वप्न क्यों नहीं ?_*
*स्वामीजी‒* उन कर्मोंसे सम्बन्ध न रहना ही उनका विलीन होना है । क्या ज्ञानीका शरीर बूढ़ा नहीं होता ? ज्ञानीका शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद होता है । ज्ञानीका शरीर बूढ़ा होता है तो शरीर बूढ़ा हुआ कि ज्ञानी ?
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*श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज*
_(‘रहस्यमयी वार्ता’ पुस्तकसे)_
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राम ! राम !! राम !!! राम !!!!
असत् का अभाव है - यह सत्य है और सत् का भाव है - यह भी सत्य है, और सत्य को स्वीकार करना है । सत्य को स्वीकार करोगे तो सत्य की प्राप्ति हो जाएगी ।
*परम श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज जी द्वारा विरचित ग्रंथ गीता प्रकाशन गोरखपुर से प्रकाशित स्वाति की बूंदें पृष्ठ संख्या २०*
*राम ! राम !! राम !!! राम !!!!*
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॥राम॥
कामिका एकादशी गीता-पाठ
श्रावण कृष्णपक्ष ११ सं.२०८१( बुधवार 31 जुलाई 24)
प्रातः 7:00 से
गीता सामूहिक पाठ
पाठमें शामिल होनेके लिये हार्दिक निवेदन।
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राम ! राम !! राम !!! राम !!!!
परमात्मा की प्राप्ति में जानना और मानना मुख्य है । पारमार्थिक उन्नति भविष्य की वस्तु नहीं है और सांसारिक उन्नति वर्तमान की वस्तु नहीं है ।
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*राम ! राम !! राम !!! राम !!!!*
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राम ! राम !! राम !!! राम !!!!
संसार का अंत: करण पर असर पड़ता है, क्योंकि दोनों की जाति एक है । अपने पर असर नहीं पड़ता- यह सच्ची बात है ।
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*राम ! राम !! राम !!! राम !!!!*
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*ॐ श्री परमात्मने नमः*
*_प्रश्न‒सेठजी (श्रीजयदयालजी गोयन्दका)-ने लिखा है कि जिसे जीवन्मुक्त महापुरुष मिल गये, उसे भगवद्दर्शनकी दरकार नहीं‒इसका तात्पर्य क्या है ?_*
*स्वामीजी‒* उस महापुरुषमें और भगवान्में कोई फर्क नहीं है‒‘तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात्’ (नारदभक्ति॰ ४१) । संसारभरमें भगवान्का जो पूजन हो रहा है, वह उस महापुरुषका भी पूजन है ! वे महापुरुष मिल गये तो मानो सगुण भगवान् मिल गये !
वास्तवमें अपना भाव मुख्य है । भाव होनेसे ही दर्शनका लाभ होता है । भगवान्ने अवतार लिया तो उनके दर्शनसे भी कल्याण उसका हुआ, जिसका वैसा भाव था । सन्तोंका शरीर भगवान्की तरह दिव्य नहीं होता ।
जो केवल संसारका उद्धार करनेके लिये आते हैं, उनके लिये यह बात विशेषरूपसे है, जैसे सेठजी !
*_प्रश्न‒आपने कहा है कि तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त महापुरुषको पीड़ाका अनुभव नहीं होता, यह कैसे ?_*
*स्वामीजी‒* उसको ‘अपनेमें’ पीड़ाका अनुभव नहीं होता, पीड़ाका ज्ञान तो होता ही है । वैराग्यवान्को अपनेमें पीड़ाका कुछ अनुभव होता है; क्योंकि उसमें जड़-चेतनकी ग्रन्थि रहती है । परन्तु जीवन्मुक्तमें जड़-चेतनकी ग्रन्थि न रहनेसे उसे अपनेमें पीड़ाका अनुभव नहीं होता ।
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॥राम॥
श्रावण कृ० हरियाली अमावस्या सं.२०८१
रविवार 4 अगस्त 24, दिन 11 से 1बजे
गीता सामूहिक पाठ
पाठमें शामिल होनेके लिये हार्दिक निवेदन।
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*_प्रश्न‒जनक-सुलभाकी कथा (महाभारत, शान्ति॰ ३२०)-से यह बात सिद्ध होती है कि जीवन्मुक्तको जीवन्मुक्त भी जान नहीं सकता । दूसरी ओर, आपके सत्संगी भी दूसरेका प्रवचन सुनकर जान सकते हैं कि यह अनुभवकी बात कहता है या सीखी हुई बात ?_*
*स्वामीजी‒* बात यही ठीक है कि जीवन्मुक्तकी पहचान जीवन्मुक्त भी नहीं कर सकता । कारण कि जीवन्मुक्ति स्वसंवेद्य स्थिति है, परसंवेद्य नहीं । सत्संगीको दूसरेकी कमीका ज्ञान तो हो सकता है, पर पूर्णताका ज्ञान नहीं हो सकता ।
‘यह जीवन्मुक्त है’‒ऐसी पहचान नहीं कर सकते, पर यह ‘बद्ध नहीं है’‒यह पहचान कर सकते हैं । यह अनुभवी नहीं है‒यह पहचान कर सकते हैं । तात्पर्य है कि पूर्णता नहीं पहचान सकते, पर कमी पहचान सकते हैं ।
मुक्त होनेपर जो सूक्ष्म अहम्का संस्कार रहता है, उसकी पहचान नहीं होती । उसकी पहचान मतभेद देखनेसे होती है कि मतभेद है तो सूक्ष्म अहम्का संस्कार भी अवश्य होगा ।
जैसे जीवन्मुक्तकी पहचान नहीं होती, ऐसे ही ऊँचे साधककी भी पहचान नहीं होती । यह ऊँचा साधक है या सिद्ध है‒इसका पता लगाना कठिन है । कारण कि साधकमें जो विकार होते हैं, वे (वेग अधिक होनेसे) बाहर प्रकट हो जाते हैं, वह उनके अनुसार क्रिया कर बैठता है । परन्तु ऊँचे साधकमें विकार (वेग कम होनेसे) बाहर प्रकट नहीं होते, प्रत्युत सूक्ष्मरूपसे भीतर ही रहते हैं । साधकको दूसरेकी कमी न देखकर अपनी कमी देखनी चाहिये और उसको दूर करना चाहिये ।
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