राम ! राम !! राम !!! राम !!!!
जिनके रोम रोम में करोड़ों ब्रह्मांड है, वे भगवान् भी हमसे प्रेम चाहते हैं ।
*परम श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज जी द्वारा विरचित ग्रंथ गीता प्रकाशन गोरखपुर से प्रकाशित स्वाति की बूंदें पृष्ठ संख्या २3*
*राम ! राम !! राम !!! राम !!!!*
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।॥राम॥
ऑनलाइन सत्संग सूचना
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर्व
वि.सं. २०८१ भाद्रपद कृ० ०८ सोम 26 अगस्त 24
प्रातः 7:30 से श्री गीताजी का सामूहिक मूल पाठ
हार्दिक निवेदन— पाठमें शामिल हों।
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*..मेरे हृदय में साक्षात् परमात्मा रहते हैं..*
श्रोता-- *सम्पूर्ण जीवों में क्या एक ही आत्मा है ? अगर एक है तो फिर भेद क्यों होता है ?*
स्वामीजी-- *अनेक होते हुए भी एक है, और एक होते हुए भी अनेक है। नाना प्रकार के कर्मों के कारण उनमें भेद दिखता है।* अगर कर्मों की तरफ न देखकर एक भगवान् को देखें तो सब एक हैं। भगवान् जैसे भक्त के हृदय में विद्यमान हैं, सम्पूर्ण जीवों के हृदय में वे वैसे-के-वैसे ही विद्यमान हैं- *'सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः'* (गीता १५। १५)। इसलिये *आप भगवान् को अलग न मानकर अपने में मानो।*
आप सब *यह बात दृढ़ता से मान लो कि मेरे हृदय में साक्षात् परमात्मा रहते हैं।* यह बहुत लाभ की बात है! भगवान् से ही अपनापन करो। दूसरा कोई साथ में रहने वाला नहीं है। *दूसरा कोई साथ रहता नहीं और भगवान् छोड़ते नहीं!* अतः *भगवान् के सिवाय किसी दूसरे को अपने हृदय में स्थान मत दो तो बहुत जल्दी कल्याण हो जायेगा।* दूसरे किसी को स्थान दोगे, अपना मानोगे तो देरी लगेगी।
*हृदय में भगवान् पूरे-के-पूरे रहते हैं।* उनके टुकड़े नहीं होते।
*राम ! राम !! राम !!!*
परम् श्रद्धेय स्वामी जी श्रीरामसुखदास जी महाराज, पुस्तक- *ईश्वर अंस जीव अबिनासी* पृष्ठ १४८