।॥राम॥
ऑनलाइन सत्संग सूचना
वि.सं. २०८१ भाद्रपद शु० ०८ बुध 11 सितम्बर 24
प्रात: 4:30 गीता-पाठ
प्रातः 5 प्रार्थना प्रवचन व सत्संग- संवाद
(गीता ०२/२१-३०)
हम भगवान के पहले से ही हैं
(श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदास जी महाराज 25.08.2004 प्रातः5 गीताभवन ऋषिकेश)
प्रार्थना प्रवचन व सत्संग-संवाद
गीता-प्रबोधनी अर्थ सहित पाठ गीता-साधक-संजीवनी
सायं 3 गीता-रामायण और भागवत
रात्रि 7 गीता-साधक-संजीवनी
हार्दिक निवेदन है कि हम सभी मिलकर लाभ लेवें
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राम ! राम !! राम !!! राम !!!!
अच्छे देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदि का वियोग अवश्यम्भावी है । अतः संयोग का लाभ ले लेना चाहिए ।
*परम श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज जी द्वारा विरचित ग्रंथ गीता प्रकाशन गोरखपुर से प्रकाशित स्वाति की बूंदें पृष्ठ संख्या २४*
*राम ! राम !! राम !!! राम !!!!*
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*ॐ श्री परमात्मने नमः*
*_प्रश्न‒स्वामीजी, आपने कहा कि अवगुण है ही नहीं, गुण ही है‒इसका तात्पर्य ? अवगुण तो दीखता है !_*
*स्वामीजी‒* अवगुण न पुरुषमें है, न प्रकृतिमें है, प्रत्युत प्रकृति-पुरुषके सम्बन्धमें है । जिसके साथ हमारा सम्बन्ध ही नहीं है, उससे सम्बन्ध जोड़नेपर अवगुण पैदा होते हैं । जिसके साथ हमारा वास्तविक सम्बन्ध है, उससे सम्बन्ध जोड़नेपर अवगुण पैदा होते ही नहीं ।
वास्तवमें अवगुण हैं ही नहीं, गुणोंकी कमीका नाम ही अवगुण है ।
*_प्रश्न‒विकार जड़में कैसे हो सकते हैं ? जड़में काम-क्रोध आदि कैसे होंगे ?_*
*स्वामीजी‒* विकार ‘मैं’ में हैं, ‘हूँ’ में नहीं हैं । सब विकार अहंकारमें, तादात्म्यमें, मैं-पनमें ही हैं, जो कि अपरा प्रकृति है । तात्पर्य है कि जड़से एकता मान ली, अपना सम्बन्ध मान लिया‒इसीमें सब विकार हैं । जड़के सम्बन्धकी मान्यतामें होनेपर भी विकार हैं जड़में ही !
*_प्रश्न‒कामना, ममता आदि दोष चेतनमें तो हो ही नहीं सकते और जड़में भी नहीं रह सकते हैं, फिर वे किसमें रहते हैं ?_*
*स्वामीजी‒* वास्तवमें दोष न चेतनमें हैं, न जड़में, प्रत्युत अनजानपनेसे अपनेमें माने हुए हैं ।
*_प्रश्न‒काम-क्रोधादिकी वृत्ति कैसे मिटे ?_*
*स्वामीजी‒* कैसे मिटे ? कहाँ जाऊँ ? क्या करूँ ? किससे पूछूँ ?‒ऐसी लगन होनेपर मिट जायगी ।
*_प्रश्न‒जब काम-क्रोधादिकी वृत्ति पैदा हो, तब साधक क्या करे ?_*
*स्वामीजी‒* (१) वह वृत्ति भी भगवान् ही हैं‒ऐसा देखे । मैं, शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, प्राण‒सब कुछ वासुदेव ही है‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७ । १९)‒ऐसा करके चुप हो जाय ।
(२) मेरा मन भगवान्के सिवाय कहीं जाता नहीं और भगवान्के सिवाय मेरे मनमें कुछ आता नहीं‒यह बात एकान्तमें बैठकर दृढ़ कर ले ।
(३) विकार आते ही ‘आगमापायिनोऽनित्याः’ (गीता २ । १४) का जप शुरू कर दे तो विकार चला जायगा ! यह मन्त्र है, जिसे भगवान्ने गीतामें दिया है । मैंने भी करके देखा है । पन्द्रह-बीस-तीस बार जप करते ही विकार ऐसे दूर होता है, जैसे बिच्छूका जहर उतरता है !
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*श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज*
_(‘रहस्यमयी वार्ता’ पुस्तकसे)_
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*ॐ श्री परमात्मने नमः*
*_प्रश्न‒यदि ईश्वर विचारका विषय नहीं है, प्रत्युत मानने-न-माननेका विषय है, तो फिर शंकराचार्य आदि महापुरुषोंने ईश्वरपर विचार क्यों किया ?_*
*स्वामीजी‒* उन्होंने ईश्वरपर विचार नहीं किया, प्रत्युत शास्त्रोंपर विचार किया है । कारण कि शास्त्रोंको प्रमाण माना गया है । शास्त्रोंमें ईश्वरका वर्णन है, जिसको कई मानते हैं, कई नहीं मानते । उनके लिये विचार किया गया है ।
*_प्रश्न‒परमात्मा है‒ऐसा मान लेनेसे ही सिद्धि हो जायगी या सांसारिक सुखासक्ति छोड़नेसे सिद्धि होगी ?_*
*स्वामीजी‒* पहले मान लो, फिर संयोगकी रुचि मिट जायगी । ज्यों-ज्यों रुचि मिटेगी, त्यों-त्यों मानना दृढ़ होगा ।
*_प्रश्न‒ब्रह्म और ईश्वरमें क्या फर्क है ?_*
*स्वामीजी‒* ईश्वर समग्र है और ब्रह्म उस समग्रका अंग है । ब्रह्मके साथ हमारी ‘तात्त्विक एकता’ है और ईश्वरके साथ हमारी ‘आत्मीय एकता’ है ।
*_प्रश्न‒स्वामीजी, आप कभी तो ब्रह्म और ईश्वरको अलग-अलग बताते हैं और कभी कहते हैं कि एक सत्तामात्रमें जीव, ईश्वर, ब्रह्म सब एक हैं अर्थात् एक सत्तामात्रके सिवाय कुछ नहीं है ! हम किस बातको सही मानें ?_*
*स्वामीजी‒* वास्तवमें परमात्मतत्त्वका पूरा वर्णन नहीं कर सकते, इसलिये उसका तरह-तरहसे वर्णन करते हैं !
*_प्रश्न‒परमात्माको घन (ठोस) कहा गया है, फिर संसार प्रलयकालमें उनमें लीन हो जाता है‒यह कहना कैसे बनता है ?_*
*स्वामीजी‒* परमात्माको ‘घन’ कहनेका तात्पर्य है कि एक परमात्माके सिवाय कुछ नहीं है । जिनकी दृष्टिमें संसारकी सत्ता है, उनके लिये कहा गया है कि संसार परमात्मामें लीन होता है !
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