*ॐ श्री परमात्मने नमः*
*_प्रश्न‒कई साधक भगवत्प्राप्तिसे निराश होकर साधन छोड़ देते हैं, इसमें क्या कारण है ?_*
*स्वामीजी‒* इसमें कारण है‒फलकी इच्छा । उन्होंने परमात्माको साधनका फल माना । परमात्मा किसी साधनका फल नहीं हैं, इसलिये वे तो प्राप्त ही हैं, अप्राप्त नहीं हैं । केवल संसारकी कामना, आसक्ति ही उनके अनुभवमें बाधक है । अतः साधकमें मुख्यता इस बातकी रहनी चाहिये कि संसारकी कामना, आसक्ति कैसे मिटे ?
प्रार्थना करनेसे भी वास्तवमें संसारकी कामनाका नाश होता है, परमात्मा नहीं मिलते । परमात्मप्राप्ति तो स्वतः ही है ।
भगवान्की प्राप्तिकी इच्छा करनेसे भगवान् नहीं मिलते ! उनके टुकड़े नहीं होते कि इतनी इच्छा करनेसे इतने भगवान् मिलेंगे !
*_प्रश्न‒पर उत्कट अभिलाषामात्रसे उनकी प्राप्ति होती है न ?_*
*स्वामीजी‒* हाँ, पर वह ‘मात्र’ हो, ‘उत्कट’ हो अर्थात् साथमें संसारकी इच्छा न हो । परमात्माकी ‘आवश्यकता’ (तत्त्वजिज्ञासा, मुमुक्षा, प्रेमपिपासा) तो कम है, पर संसारकी ‘इच्छा’ तेज है, इसलिये परमात्मप्राप्ति नहीं होती । ‘आवश्यकता’ तेज हो और ‘इच्छा’ कमजोर हो तो प्राप्ति हो जायगी ।
*_प्रश्न‒स्वामीजी, आप कहते हैं कि मनुष्य प्रत्येक परिस्थितिमें परमात्माको प्राप्त कर सकता है, पर देखने-सुननेमें ऐसा आया है कि जो सत्संगमें लगा हुआ है, उसका विवाह हो जानेके बाद उसका सत्संग-भजन छूट गया ?_*
*स्वामीजी‒* ऐसी बात नहीं है । मनुष्य विवाहसे नहीं फँसता, प्रत्युत भोगोंसे फँसता है । कैसी ही परिस्थिति हो, मनुष्य भोगसे फँसता है, योगसे मुक्त होता है । परिस्थिति राग-द्वेष मिटानेके लिये है । जबतक यह भाव रहेगा कि सुख या दुःख देनेवाला दूसरा है, तबतक वह फँसेगा ही !
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*श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज*
_(‘रहस्यमयी वार्ता’ पुस्तकसे)_
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