*ॐ श्री परमात्मने नमः*
*_प्रश्न‒जब अहम् भी वासुदेव है, तो फिर भोगोंका आकर्षण क्यों होता है ? वह आकर्षण कैसे छूटे ?_*
*स्वामीजी‒* आकर्षण छोड़नेका सबसे बढ़िया उपाय है‒‘मद्रुप उभयं त्यजेत्’ (श्रीमद्भा॰ ११ । १३ । २६) ‘दोनों (मन और विषयों)-को अपने वास्तविक स्वरूपसे अभिन्न मुझ परमात्मामें स्थित होकर त्याग दे’ । अहम्, मन और विषय‒तीनोंको छोड़ दे । अहम् भी एक प्रकाशमें दीखता है । अहम् नहीं है, पर प्रकाश है । भोगोंके आकर्षणका विरोध न करे । विरोध करनेसे भोगोंकी सत्ता दृढ़ होगी । जिसको आकर्षणका ज्ञान होता है, उसमें आकर्षण नहीं है ।
सुषुप्तिमें अहम् अर्थात् ‘मैं’ नहीं रहता, पर अपनी सत्ता रहती है । जो कभी है और कभी नहीं है, वह कभी भी नहीं है ! अतः ‘मैं’ नहीं है, प्रत्युत ‘है’ है । ‘है’ में ‘मैं’ नहीं है ।
आकर्षणको मिटाना भी नहीं है । उसकी सत्ता हो तो मिटाये ! सत्ता ही नहीं तो मिटायें क्या ? मैं कहूँ कि ‘यहाँसे घड़ा उठाओ’ तो जब यहाँ घड़ा है ही नहीं तो उठायें क्या ? मिटानेकी चेष्टा करना तो उसको सत्ता देना है । आकर्षण तो है ही नहीं !
मन प्रकृतिका अंश है; अतः मनका प्रकृतिमें आकर्षण होगा ही ! नेत्रोंका रूपमें आकर्षण होगा । सभी इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयको ग्रहण करती हैं । अतः ‘मद्रुप उभय त्यजेत्’ ।
*_प्रश्न‒आपके प्रवचनमें एक बात यह आयी कि ‘वासुदेवः सर्वम्’ में सन्देह नहीं होना चाहिये, और दूसरी बात आयी कि सन्देह भी भगवान्का स्वरूप है, दोनों बातें कैसे ?_*
*स्वामीजी‒* सन्देहरहित होनेपर ही यह ज्ञान होगा कि सन्देह, शंका, समाधान आदि भी भगवान्के ही स्वरूप हैं !
*_प्रश्न‒जब सब कुछ वासुदेव ही है तो फिर देवता, भूत-प्रेत आदि योनियोंमें स्वभावभेद कहाँसे आया ?_*
*स्वामीजी‒* सभीका स्वभावभेद मनुष्यकृत ही है । स्वभावको मनुष्यने बिगाड़ा है । सब योनियाँ अनादिकालसे चली आ रही हैं । सब योनियोंका एक ही बीज (परमात्मा) है‒‘यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन’ (गीता १० । ३९) ‘हे अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणियोंका जो बीज (मूल कारण) है, वह बीज भी मैं ही हूँ’ ।
❈❈❈❈
*श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज*
_(‘रहस्यमयी वार्ता’ पुस्तकसे)_
*VISIT WEBSITE*
*www.swamiramsukhdasji.net*
*BLOG*
*http://satcharcha.blogspot.com*
❈❈❈❈
राम ! राम !! राम !!! राम !!!!
भगवान् ने सृष्टि की रचना जीवों के लिए की है, क्योंकि जीव भोग चाहते हैं, जैसे पिता बालक के लिए खिलौना खरीद कर देता है । सृष्टि की रचना मनुष्यों के लिए और मनुष्यों की रचना अपने लिए की है ।
*परम श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज जी द्वारा विरचित ग्रंथ गीता प्रकाशन गोरखपुर से प्रकाशित स्वाति की बूंदें पृष्ठ संख्या ४२*
*राम ! राम !! राम !!! राम !!!!*
👏👏
*ॐ श्री परमात्मने नमः*
*_प्रश्न‒हमारे कर्मोंसे हमें वस्तु मिली है तो वह हमारी ही तो हुई, दूसरेकी कैसे हुई ?_*
*स्वामीजी‒* प्रारब्धसे वस्तु मिली है तो वह भी देने (सेवा)-के लिये है, अपने सुखभोगके लिये नहीं । आने-जानेवाली चीज हमारी कैसे हो सकती है ? वस्तु मिली है और बिछुड़नेवाली है‒यह निश्चित बात है ।
क्रियाशक्ति भी हमारी नहीं है । लकवा मार जाय, कमजोरी आ जाय तो हम क्या कर सकते हैं ? कर्मफलका भोग भी बेईमानी है‒‘फले सक्तो निबध्यते’ (गीता ५ । १२) । कर्म, कर्म-सामग्री, करनेकी योग्यता, बल आदि कुछ भी अपना नहीं है । कर्म करनेका विवेक भी अपना नहीं है, प्रत्युत मिला हुआ है ।
प्राप्त वस्तु कर्मोंका फल है‒यह तो बहुत स्थूल बात है । वास्तवमें सब कुछ भगवान्का है, भगवान् मेरे हैं । एक भगवान्के सिवाय कुछ भी अपना नहीं है । परन्तु भगवान्से भी कुछ नहीं लेना है, सुख नहीं लेना है, उनसे अपनी मनचाही नहीं करनी है ।
वस्तुओंको चाहे संसारकी मान लो (कर्मयोग), चाहे प्रकृतिकी मान लो (ज्ञानयोग) और चाहे भगवान्की मान लो (भक्तियोग) । अपनी मानोगे तो जन्ममरणयोग होगा ! जितनी ममता करोगे, उतना ही दुःख होगा‒यह थर्मामीटर है !
*_प्रश्न‒आप कहते हैं कि पदार्थ ‘मेरे’ भी नहीं हैं और ‘मेरे लिये’ भी नहीं हैं, तो वे ‘मेरे लिये’ क्यों नहीं ?_*
*स्वामीजी‒* क्योंकि जड़के द्वारा चेतनकी प्राप्ति कैसे होगी ? जड़ चेतनका उपकारक कैसे होगा ?
*_प्रश्न‒आपने कहा कि लोभके कारण आवश्यक वस्तुकी प्राप्ति नहीं होती, तो लोभ न होनेसे आवश्यक वस्तु मिलती है या प्रारब्ध होनेसे मिलती है ?_*
*स्वामीजी‒* लोभ न होनेसे नया प्रारब्ध बन जायगा !
*_प्रश्न‒वस्तु प्रारब्धसे मिलती है या भगवान्की कृपासे ? भगवान् प्रारब्धके अनुसार ही तो देंगे !_*
*स्वामीजी‒* अगर भगवान् प्रारब्धके अनुसार ही दें तो उनकी दया क्या काम आयी ? अतः वस्तु प्रारब्धके बिना भी भगवान्की दयासे मिल सकती है ।
❈❈❈❈
*श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज*
_(‘रहस्यमयी वार्ता’ पुस्तकसे)_
*VISIT WEBSITE*
*www.swamiramsukhdasji.net*
*BLOG*
*http://satcharcha.blogspot.com*
❈❈❈❈